1962 की लड़ाई ने नेहरू को तोड़ कर रख दिया था. इस सदमे से वो कभी उबर नहीं पाए. उनकी पुरानी शारीरिक ताकत, बौद्धिक कौशल और नैतिक चमक बीते दिनों की बात हो गई.
निराश नेहरू थके हुए से दिखने लगे, उनके कंधे झुक गए और उनकी आँखें भी सोई सोई सी दिखने लगीं. उनकी चाल में जो तेज़ी हुआ करती थी, लुप्त हो गई.
इंडियन एक्सप्रेस के समाचार संपादक ट्रेवर ड्राइबर्ग ने लिखा, ‘एक रात में ही नेहरू थके हुए, निराश, बूढ़े शख़्स दिखने लगे. उनके चेहरे पर कई झुर्रियाँ उभर आईं और उसका तेज हमेशा के लिए जाता रहा.’
आठ जनवरी, 1964 को जब नेहरू भुवनेश्वर में काँग्रेस के वार्षिक सम्मेलन को संबोधित करने उठे तो अपना संतुलन बरकरार नहीं रख पाए और सामने की तरफ़ गिरे. मंच पर बैठी इंदिरा गांधी ने दौड़ कर नेहरू को उठाया.नेहरू के शरीर के बाँए हिस्से में पक्षाघात हो गया था. अगले कुछ दिनों तक नेहरू उड़ीसा के राज भवन में रहे. उनकी तबियत थोड़ी बेहतर हुई लेकिन इतनी नहीं कि वो कांग्रेस के सम्मेलन में दोबारा शिरकत कर सके.
लालबहादुर शास्त्री बने बिना विभाग के मंत्री
12 जनवरी को नेहरू और इंदिरा वापस दिल्ली लौट आए. नेहरू ने अपने रोज काम करने के घंटे 17 से घटा कर 12 कर दिए.
डाक्टरों के ज़बरदस्ती करने पर उन्होंने दोपहर थोड़ी देर के लिए नींद लेनी शुरू कर दी. बाहरी लोगों को ये नहीं बताया गया कि नेहरू की बीमारी कितनी गंभीर है.
जनवरी का अंत होते होते नेहरू इतने ठीक हो गए कि 26 जनवरी के गणतंत्र दिवस समारोह में भाग ले सकें. फ़रवरी में वो संसद के साल के पहले सत्र में भी मौजूद थे लेकिन उन्होंने वहाँ बैठे बैठे ही भाषण दिया.
रोज़मर्रा के सरकारी कामों में नेहरू की मदद कर रहे थे गृह मंत्री गुलज़ारी लाल नंदा और वित्त मंत्री टीटीके कृष्णामचारी.
लेकिन 22 जनवरी को अचानक लाल बहादुर शास्त्री को बिना विभाग के मंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई.
उसी दौरान इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपीनियन ने नेहरू के बाद कौन ? विषय पर एक सर्वेक्षण करवाया. इसमें शास्त्री को पहला, कामराज को दूसरा, इंदिरा गाँधी को तीसरा और मोरारजी देसाई को चौथा स्थान मिला.
नेहरू का आख़िरी संवाददाता सम्मेलन
15 अप्रैल को इंदिरा गांधी अमेरिका चली गईं. वहाँ से वो 29 अप्रैल को वापस लौटीं. उसी दिन नेहरू के आमंत्रण पर शेख़ अब्दुल्लाह उनसे मिलने दिल्ली आए.
दोपहर में इंदिरा गांधी उन्हें लेने पालम हवाईअड्डे गईं. अब्दुल्लाह ने तीन मूर्ति हाउज़ पहुंचते ही नेहरू को गले लगाया जिन्हें उन्होंने 11 सालों से नहीं देखा था. अब्दुल्लाह को नेहरू की शारिरिक हालत देखकर एक झटका सा लगा.
13 मई को नेहरू और इंदिरा काँग्रेस की एक बैठक में भाग लेने बंबई गए. 22 मई को नेहरू ने सात महीनों में पहली बार एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया. 38 मिनट तक चले इस संवाददाता सम्मेलन में दो सौ से अधिक पत्रकारों ने भाग लिया.
एम जे अकबर नेहरू की जीवनी में लिखते हैं, ‘नेहरू देखने में तो ठीक लग रहे थे लेकिन उनकी आवाज़ कमज़ोर थी. ये सवाल कई बार पूछा गया, नेहरू के बाद कौन ?
आख़िर में नेहरू को झल्ला कर कहना पड़ा, ‘मैं इतनी जल्दी मरने नहीं जा रहा.’
नेहरू के ये कहते ही सभी पत्रकारों ने खड़े होकर उन्हें स्टैंडिंग ओवेशन दिया.’ अगले दिन नेहरू और उनकी बेटी तीन दिनों के लिए हैलिकॉप्टर से देहरादून गए. वो 26 मई को वापस दिल्ली लौटे.
एमजे अकबर आगे लिखते हैं, ‘उस दिन नेहरू ने अपनी मेज़ पर रखी सारी फ़ाइलें निपटाईं. नेहरू जल्दी ही सोने चले गए. रात में उनकी नींद कई बार खुली. उनके सहायक नत्थू ने उन्हें नींद की गोली दी. नत्थू प्रधानमंत्री की पलंग के बग़ल में एक कुर्सी पर सो रहे थे.’
नेहरू की बड़ी धमनी एओटा फटी
27 मई को सुबह 6 बजकर 25 मिनट पर नेहरू की आँख खुली. उनको दर्द था लेकिन उन्होंने दो घंटे तक नत्थू को नहीं जगाया. जब नत्थू जागे तो उन्होंने एक सुरक्षाकर्मी को इंदिरा और नेहरू के डाक्टर बेदी को बुलवाने भेजा.
बेदी जनवरी से ही जब से नेहरू को पक्षाघात हुआ था तीनमूर्ति भवन में ही रह रहे थे. जब इंदिरा और डाक्टर बेदी कमरे में पहुंचे तो नेहरू थोड़ा दिग्भ्रमित से दिखाई दिए. उन्होंने उनसे पूछा, ‘माजरा क्या है?’ इसके बाद कुछ ही क्षणों में नेहरू बेहोश हो गए. जब डाक्टर बेदी ने उनका मुआएना किया तो पाया कि नेहरू की बड़ी धमनी ‘एओटा’ फट गई है.’
चूँकि इंदिरा और नेहरू का ब्ल़ड ग्रुप एक ही था इसलिए डाक्टर बेदी ने इंदिरा गांधी के शरीर से खून निकाला ताकि वो उसे नेहरू को चढ़ा सकें.
लेकिन ख़ून चढ़ाने से पहले ही नेहरू कोमा में चले गए.
कैथरीन फ़्रैंक इंदिरा गाँधी की जीवनी में लिखती हैं, ‘इस बीच इंदिरा ने राजीव गाँधी को तार दिया जो कि उस समय इंग्लैंड में थे. उन्होंने संजय गांधी को भी संदेश भिजवाया जो उन दिनों कश्मीर गए हुए थे. फिर उन्होंने अपनी दोनों बुआओं कृष्णा हठी सिंह और विजय लक्ष्मी पंडित को फ़ोन किया जो उस समय बंबई में थीं. दिल्ली में उन्होंने सिर्फ़ कृष्ण मेनन को फ़ोन किया जो मिनटों में तीन मूर्ति भवन पहुंच गए.’
नेहरू की जीवनी में एम जे अकबर लिखते हैं, ‘इंदिरा अंतिम बार नेहरू के पार्थिव शरीर के पास गईं. उन्होंने उसके ऊपर गंगा जल छिड़का और अपने पिता के पैरों के पास चंदन की एक लकड़ी रख दी. वो वहाँ पर करीब 8 मिनटों तक बिना एक शब्द बोले खड़ी रहीं. फिर उन्होंने अपने ‘पापू’ के चेहरे को आख़िरी बार देखा और फिर नीचे उतर आईं.’
संजय गांधी ने चिता में लगाई आग
नेहरू ने अपनी वसीयत में साफ़ लिखा था कि उनकी अंतयेष्ठि में किसी धार्मिक रीति का पालन न किया जाए लेकिन इसके बावजूद उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से किया गया.
ये फ़ैसला इंदिरा गाँधी का था. कैथरीन फ़्रैंक लिखती हैं, ‘इस फ़ैसले से इंदिरा को बहुत तकलीफ़ हुई क्योंकि उन्होंने नेहरू की अंतिम इच्छा का सम्मान नहीं किया था. संभवत: उनपर कुछ धार्मिक नेताओं और राजनेताओं ने दबाव डाला था कि भारत के लोग धर्मनिर्पेक्ष अंतिम संस्कार को स्वीकार नहीं कर पाएंगे. नेहरू के पार्थिव शरीर को चंदन की लकड़ियों के ऊपर रखा गया. वैदिक मंत्रोच्चार और ‘द लास्ट पोस्ट’ के बिगुल के बीच 17 साल के संजय गाँधी ने उनकी चिता में आग लगाई.’
विशेष ट्रेन से अस्थियों को इलाहाबाद ले जाया गया
अंतिम संस्कार के तेरह दिनों बाद नेहरू की अस्थियों को एक विशेष ट्रेन से संगम में प्रवाहित करने के लिए इलाहाबाद ले जाया गया.
ट्रेन ने आमतौर से दस घंटों में पूरे हो जाने वाले सफ़र को 25 घंटों में तय किया. ट्रेन हर स्टेशन पर रुकी जहाँ हज़ारों लोग नेहरू को अंतिम विदाई देने आए थे.
इस सफ़र का वर्णन करते हुए इंदिरा गाँधी की निकट सहयोगी ऊषा भगत ने अपनी किताब ‘इंदिराजी’ में लिखा, ‘सारी खिड़कियाँ शीशे की थी और उनपर हरे पर्दे लगे हुए थे. हर स्टेशन पर लोग ट्रेन पर फूलों की पंखड़ियाँ फेंक रहे थे. अलीगढ़ स्टेशन पर शेख़ अब्दुल्लाह ट्रेन पर चढ़े. हम लोगों ने पहले ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ गाया’ और फिर शाँति पाठ किया. ट्रेन में हमारे साथ मणि बेन, जमना लाल बजाज, के सी पंत, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्णा हठी सिंह और ज़ाकिर साहब थे. इतनी संख्या में लोग स्टेशनों पर आ रहे थे कि उनकी हथेलियों के दबाव से हमारी तरफ़ की खिड़की का शीशा टूट गया. इलाहाबाद स्टेशन पर दलाई लामा भी पहुंचे हुए थे.’
संगम पर नेहरू के अस्थियों के अलावा उनकी पत्नी कमला नेहरू की अस्थियाँ भी साथ साथ प्रवाहित की गईं. करीब तीस साल पहले नेहरू कमला की अस्थियों को स्विटज़रलैंड से लाए थे और वो हमेशा आनंद भवन, जेल या दिल्ली में यॉर्क रोड वाले उनके घर में जहाँ कहीँ भी वो हों उनकी पलंग के सिरहाने रखी रहती थी.