गांव की एक महिला के इस वाक्य में तथाकथित तौर पर ऊंची जाति से होने का अभिमान, दलितों के प्रति तिरस्कार और भारत के संविधान और क़ानून के प्रति बेरुख़ी बिलकुल साफ़ थी.
वो जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल को लेकर इतनी सहज थीं कि शायद उन्हें ये एहसास ही नहीं था कि जो वो बोल रही हैं वो क़ानूनी रूप से अपराध की श्रेणी में आता है.
ये पूछने पर कि क्या वो गांव के दलितों के साथ बैठ सकती हैं या खा सकती हैं, वो हँसते हुए कहती हैं, “लगता है, तुम हरिजन हो जो ये सवाल कर रहे हो.”
उत्तर प्रदेश के हाथरस का ये गाँव बीते साल एक दलित लड़की के कथित गैंगरेप और हत्या के बाद चर्चा में आया था. इस अपराध के आरोप में गाँव के ही तथाकथित ऊँची जाति के चार अभियुक्त जेल में हैं.देश-विदेश के मीडिया ने इस घटना को कवर किया था और भारत में दलितों की स्थिति को लेकर गंभीर बहस छिड़ी थी. लेकिन एक साल बाद इस गांव में जातिवाद की जड़ें पहले से भी गहरी नज़र आती हैं.
वो कहते हैं, “गाँव के ऊंची जाति के लोग हमें नीची नज़रों से देखते हैं. अभी कुछ दिन पहले मेरी भतीजी दूध लेने गई थी और चारपाई पर बैठ गई थी तो उसे दुत्कारते हुए उठा दिया गया.”
बच्ची की मां और मृत लड़की की भाभी कहती हैं, “मेरी बड़ी बेटी पांच साल की है, अब कुछ समझदार हो रही है, अच्छा-बुरा समझ रही है. कुछ दिन पहले ये सीआरपीएफ के एक सर के साथ डेयरी पर दूध लेने चली गई थी. वहां सर ने उसे चारपाई पर बिठा दिया लेकिन ऊंची जाति के लोगों ने उसे चारपाई से उठा दिया. ये बात उसके दिल में बैठ गई है. वो अब दूध लेने नहीं जाती है.”
वो कहती हैं, “जातिवाद तब तक ख़त्म नहीं होगा जब तक इंसान की सोच नहीं बदलेगी. यहां ये सदियों से चलता आ रहा है, जैसे पहले जातिवाद होता था वैसे ही आज भी हो रहा है.”
सीआरपीएफ़ की सुरक्षा में हैं पीड़ित परिवार
सीआरपीएफ़ की 135 जवानों की एक कंपनी पीड़ित परिवार की सुरक्षा में हैं. परिवार से मिलने वालों को सुरक्षा जाँच के बाद मेटल डिटेक्टर से होकर गुज़रना होता है. जवान हर समय मुस्तैद नजर आते हैं.
सुरक्षा प्रोटोकॉल की वजह से परिवार के किसी सदस्य को बिना सुरक्षा के घर से निकलने की अनुमति नहीं है.
सीआरपीएफ़ ने पीड़िता के चाचा के घर के आंगन में ही अपना तंबू लगा लिया है.
पीड़ित परिवार का कहना है कि उन्हें अभी भी डर है और सुरक्षा की ज़रूरत है लेकिन सुरक्षा प्रोटोकॉल की वजह से परिवार एक तरह से अपने घर में ही क़ैद है.