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भास्कर इंटरव्यू: मेरा मानना है कि अच्छी फिल्में बनाई नहीं जाती, मगर फिल्म बन जाती हैं…आदित्य ओम

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भोपाल2 घंटे पहलेलेखक: राजेश गाबा

कॉपी लिंकफिल्म अभिनेता, लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम। - Dainik Bhaskar

फिल्म अभिनेता, लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम।

फिल्म अभिनेता, लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम से दैनिक भास्कर की एक्सक्लूसिव बातचीतआदित्य ओम की फिल्म ‘मास्साब’ को 48 पुरस्कार मिले हैं और लगभग 35 फिल्म फेस्टिवल में हुई स्क्रीनिंग

फिल्म अभिनेता, लेखक, गीतकार, निर्देशक, निर्माता, समाज सेवक और तेलुगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता आदित्य ओम लगातार सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर फिल्मों का निर्माण व निर्देशन कर अपनी एक अलग पहचान बना रहे हैं। इन दिनों आदित्य ओम अपनी शिक्षा तंत्र पर आधारित हिंदी फिल्म ‘‘मास्साब‘‘ को लेकर चर्चा में हैं, जिसने विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में 48 पुरस्कार जीते हैं। आदित्य ओम की तीन पटकथाएं प्रतिष्ठित ऑस्कर लाइब्रेरी का हिस्सा है। फिल्म की लोकेशंस देखने भोपाल आए आदित्य ओम की दैनिक भास्कर से एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश. . .

आदित्य ओम ने कहा कि ‘मास्साब’ प्राथमिक शिक्षा पर आधारित फिल्म है। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को लेकर क्या माहौल है, वहां शिक्षा को लेकर किस तरह की समस्याएं हैं, शिक्षा को लेकर किस तरह की चुनौतियां आती हैं इसको इस फिल्म में रियल लोकेशन पर, लोकल कलाकारों के साथ दिखाने की कोशिश की गई।

अच्छी फिल्में बनाई नहीं जाती बन जाती हैं…

इस फिल्म को 48 पुरस्कार मिले हैं। लगभग 35 फिल्म फेस्टिवल में जा चुकी है। जो चार बहुत नामचीन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हैं, वहां मेरी फिल्म नहीं पहुंच पायी, क्योंकि इसी विषय पर उनके पास पहले से फिल्में थीं। ‘कॉन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’के निदेशक बेंजामिन एलोस ने हमारी फिल्म का एक पेज का रिव्यू समीक्षा लिखी और बताया कि इस विषय को वह लोग पहले ही डील कर चुके हैं, इसलिए इसे नही ले पा रहे हैं। जबकि अमरीका सहित कई देशों में यह फिल्म दिखाई जा चुकी है और हर जगह इसे सराहा गया। मेरा मानना है कि अच्छी फिल्में बनाई नहीं जाती, मगर फिल्म बन जाती हैं।

शूटिंग के बीच हुई नोटबंदी, गांववालों ने की मदद

मास्साब की शूटिंग से जुड़े कई अनुभव हैं। जब हम फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तो उसी समय नोटबंदी हो गई थी। बुंदेलखंड में एटीएम दूर दूर तक नहीं थे। ग्रामीण बैंक थे तो लंबी लंबी लाइन लगी रहती थी। पैसे हम लोगों में से किसी के पास थे नहीं । उस समय अगर लोकल ग्रामीण हमें समर्थन नहीं देते, तो यह फिल्म बनाना संभव ही नहीं था। ग्रामीणों ने हमें इतना सपोर्ट किया कि जब शूटिंग के लिए कपड़े नहीं आ पाते थे तो वह अपने कपड़े हमें दे देते थे। अगर किसी के घर के बाहर शूटिंग कर रहे होते थे, तो अंदर से चाय आ जाती थी। कई कई बार भोजन की भी वही लोग व्यवस्था कर देते थे।

बासु चटर्जी ने दिया ब्रेक, विपुल शाह के सीरियल से मिली पहचान

उत्तर प्रदेश से साउथ फिल्म इंडस्ट्री पहुंचने को लेकर आदित्य ओम कहते हैं कि कि “कुछ चीजें डेस्टिनी कराती है, ये एकदम अपने आप हो गया।फिल्म इंडस्ट्री में मेरे पहले गुरु दादा मुनि अशोक कुमार जी थे। उन्होंने मुझे बासु चटर्जी जैसे लीजेंड के पास भेजा। 1996 में मैंने उनके साथ पहला काम किया ‘हुआ सवेरा’ नाम का सीरियल किया। उनके साथ पहला काम करना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। इस सीरियल को आते-आते तीन साल हो गए। तब तक इंडस्ट्री में एक्टर के रुप में लोग जानने लगे। जिस सीरियल से लोगों ने मुझे एक्टर के रुप में इंडस्ट्री में जगह दी वह था सुप्रसिद्ध निर्देशक विपुल शाह का ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’। मैं मुंबई में सीरियल्स में काम करता था, मुझे साउथ किसी डायरेक्टर ने देखा और पूछा कि हीरो बनोगे। मुंबई में मुझे कोई हीरो बना नहीं रहा था, तो मैने हां बोल दिया। मेरी पहली ही साउथ की मूवी ‘लाहिरी लाहिरी लाहिरी लो’ उस साल की सबसे बड़ी हिट हो गई। 2007-08 तक मैंने साउथ फिल्म इंडस्ट्री में बहुत काम किया। मैं कुछ दिनों के लिए मुबंई आया। यहां शूद्र नाम की फिल्म का निर्माण हो रहा था, उसमें मैंने एसोसिएट प्रोड्युसर के तौर पर ज्वाइन कर लिया। उसके बाद मैंने बंदूक नाम की फिल्म बनाई, फिर हाॅलीवुड की एक प्रोजेक्ट डेड एंड पर काम किया। हाल में मेरी एक फिल्म आलिफ भी आई थी, फिर मैंने मास्साब बनाई।

ऐसे आदित्य सिंह बन गया आदित्य ओम

मेरे पिता जी एक आईएएस ऑफिसर थे। मैं यूपी से आता हूं। जब मैं साउथ में गया। तब उस वक्त विलेन और हीरोईन नार्थ से आते थे हीरो साउथ से आते थे। लेकिन मेरा फेसकट और किस्मत अच्छी थी कि मुझे हीरो के रुप में साउथ में स्वीकार किया गया। तब मेरे डायरेक्टर ने मुझसे कहा कि ओम आर्टिस्ट का नाम यूनिवर्सल होना चाहिए। आपका नाम आज से आदित्य सिंह की बजाय आदित्य ओम होगा। इस तरह मैं इसी नाम से जाना जाने लगा।

गांव से ही कल्चर और रियल स्टोरीज निकलती हैं

मुंबई और साउथ में काम करने के बाद भी गांव से आदित्य ओम किस तरह से जुड़ाव पाते है इसपर वो बताते हैं कि “गांव सबसे बेसिक आर्गेनिक यूनिट है, गांव से कल्चर निकलता है, गांव भाषा निकलती है, गांव से साइकाॅलॉजी निकलती है, गांव में ही वो विषय है जिसपर कहानियां बनाई जा सकती हैं। जिनके पास पैसे हैं वो स्विटजरलैंड की कहानियां बना सकते हैं और बनाते भी हैं। अब हम जैसे लोग जो थोड़ी बहुत पढ़ाई कर लिए हैं, लिख लिए हैं उनकी जिम्मेदारी बनती हैं कि गांव की फिल्में बनाए। अगर लोग ऐसा कहते है असली हिंदुस्तान गांव में बसता है हमें गांव की कहानियां लोगों को बतानी चाहिए दिखानी चाहिए।” आभिनेता आदित्य ओम मास्साहब के बाद अगली जो तीन चार फिल्में उन्होंने प्लान की है वो सब भी गांव की पृष्ठभूमि पर आधारित है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली से सीखने की खुशी गायब

वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा नीति है या सरकारी प्राइमरी स्कूलों में जिस तरह से पढ़ाई हो रही है, उसमें ‘सीखने की खुशी’ गायब है। सीखने की अपनी खुशी होती है, जब बच्चे को वह खुशी मिलती है, तभी वह पढ़ना चाहता है। वर्तमान समय में जिस तरह की शिक्षा प्रणाली है, वह बच्चों से सीखने की खुशी छीन लेती है। बच्चे स्कूल जाने से डरते है और बच्चे स्कूल न जाने के बहाने बनाते हैं। मैने अपनी फिल्म में सबसे पहला यही मुद्दा उठाया है। इसके अलावा बच्चों को सवाल पूछने की आजादी होनी चाहिए। सवाल पूछने के लिए उनका हौसला बढ़ाया जाना चाहिए। उनके अंदर की हिचक दूर करनी चाहिए। इसके अलावा समाज के अंदर निहित जो जाति, धर्म, ऊंच नीच, छुआछूत पर भी बात की है, यह सारी बातें किस तरह स्कूल या गांव के स्तर पर प्रभावित करती है। कुछ ऊंची जाति के बच्चे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं, तो छोटी जाति का बच्चा स्कूल इसलिए नहीं जाना चाहता कि नीची जाति का होने की वजह से शिक्षक उन्हे ही डांटते या पीटते है। शिक्षा को ‘फन’ बनाने को लेकर भी हमने बात की है। बच्चों के ‘मिड डे मील’में भ्रष्टाचार से लेकर स्कूलों में शिक्षकों के फर्जीवाड़े के मुद्दे को भी उठाया है। हमने शिक्षा के क्षेत्र में विजुअल्स को महत्व देने की बात की है, जिससे बच्चों को सिखाने की जरुरत न पड़े, बच्चा खुद ब खुद देखकर सीख जाए। हमारी फिल्म कहती है कि शिक्षा में नीरसता की वजह से बच्चों का पढ़ाई में मन नहीं लगता। इसके अलावा आज भी कुछ गांवों व समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नही है, तो उस पर भी मैंने कटाक्ष किया है। प्रायमरी में ही बच्चों को कम्प्यूटर शिक्षा की उपयोगिता पर भी रोशनी डाली है। मैने फिल्म में व्यावहारिक रूप से दिखाया है कि जिस गांव के बेटे ठीक से हिंदी नही बोलते थे, वह फर्राटेदार अंग्रेजी कैसे बोलने लगे। सरकारी प्रायमरी स्कूल के बच्चे किस तरह हाई फाई पब्लिक स्कूल में जाकर वादविवाद प्रतियोगिताएं जीतने लगे। बच्चों के आत्म विश्वास को कैसे बढ़ाया जाए, इस पर भी बात की है।

बच्चों में असीमित प्रतिभा, मंच नहीं मिल पाता

जब मैं अपनी इस फिल्म की शूटिंग बुंदेलखंड के एक गांव में कर रहा था, तब मैने स्वयं इस बात को अनुभव किया. मैने वास्तविक सरकारी प्राइमरी स्कूल में वास्तविक विद्यार्थियों के साथ इस फिल्म की शूटिंग कर रहा था. तीसरे दिन से वह बच्चे एक्शन व कट बोलने लगे थे. यदि हमसे गलती हो जाती थी, तो बच्चे बताते थे कि सर पिछली बार छड़ी इस जगह पर नहीं, वहां पर थी। आप मानकर चले कि भारत के बच्चों में असीमित प्रतिभा है, मगर इनकी नब्बे प्रतिशत प्रतिभाएं सरकारी प्राइमरी स्कूलों की व्यवस्था और जो हमारे देश की शिक्षा प्रणाली है, उसकी भेंट चढ़ जाती है। दसवीं की परीक्षा पास करते करते बच्चे की सारी प्रतिभा को मार दिया जाता है. सभी को यहां एक ही दौड़ में दौड़ा दिया जाता है. जरुरत यह होती है कि बच्चे के अंदर विद्यमान प्रतिभा को कितनी जल्दी तराशा जाए और फिर उसे निखारा जाए। जिस बच्चे का दिमाग गणित में नही चलता, उस पर गणित जबरन क्यों थोपी जाए?

तीन फिल्मों की स्क्रिप्ट पहुंची ऑस्कर लाइब्रेरी

आदित्य ओम की तीन फिल्मों की स्क्रिप्ट अब ऑस्कर का हिस्सा बन गई हैं। ये तीनों फिल्में अलग-अलग भाषाओं की हैं जिनमें ‘फ्रेंड रिक्वेस्ट’ तेलुगू में है. ‘द डैड एंड’ इंग्लिश और हिंदी में फिल्म का नाम ‘बंदूक’ है।

मध्यप्रदेश में करुंगा शूटिंग

मैं मध्यप्रदेश को एक्सप्लोर करने आया हूं। यहां की लोकेशंस और फैसिलिटीज। मैं अपने आने वाले प्रोजेक्ट को भोपाल और आसपास की लोकेशंस में शूट करने की योजना बना रहा हूं।

आदित्य ओम के बारे में एक और पहलु

आदित्य ओम सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं। उन्होने तेलंगाना में चेरूपल्ली व आंध्रा में चार गांव गोद ले रखे हैं. वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ के तहत पिछले दस वर्षों से साथ शैक्षिक सुधारों के लिए भी काम कर रहे हैं। गांवो में आदित्य ओम ने एक पुस्तकालय के अलावा डिजिटल सेवा केंद्र खोला है। गांव के स्कूल और लोगों को लैपटॉप और सोलर लाइट दी है। वह अपने एनजीओ ‘एडुलाइटमेंट‘ के तहत शैक्षिक सुधारों के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। कोरोना के समय में पांच सौ किसानों को आम व नारियल के बीज उपलब्ध कराए।

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