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कहानी बिहार के उस बाहुबली और उसकी पत्नी की, जो जेल में रहते हुए भी चुनाव जीता; पहला नेता, जिसे मौत की सजा मिली थी

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पटनाएक घंटा पहले

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आनंद मोहन की गिनती बिहार के बाहुबली नेताओं में की जाती है। आनंद मोहन 1994 में डीएम की हत्या के मामले में सजा काट रहे हैं।

बिहार के सहरसा जिले में एक गांव पड़ता है। नाम है पनगछिया। इस गांव में 26 जनवरी 1956 को एक लड़के का जन्म होता है। उसके दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे। ये लड़का जब 17 साल का था, तब बिहार में जेपी आंदोलन शुरू होता है और यहीं से उसके राजनीतिक करियर की शुरुआत भी। कहते हैं कि बिहार की राजनीति दो चीजों पर चलती है। पहली है जाति और दूसरी है दबंगई। इस लड़के ने इन दोनों का ही सहारा लेकर राजनीति में कदम रखा। इस लड़के की इतनी बात हो चुकी है, तो अब नाम भी जान ही लीजिए। उसका नाम है आनंद मोहन सिंह।

बाहुबली नेता आनंद मोहन। इस वक्त एक डीएम की हत्या के मामले में सजा काट रहे हैं। इनकी पत्नी और पूर्व सांसद लवली आनंद हाल ही में राजद में शामिल हुई हैं।

1983 में तीन महीने जेल में गुजारे, 1990 में चुनावी राजनीति में उतरे

80 के दशक में बिहार में आनंद मोहन सिंह बाहुबली नेता बन चुके थे। उन पर कई मुकदमे भी दर्ज हुए। 1983 में पहली बार तीन महीने के लिए जेल जाना पड़ा। 1990 के विधानसभा चुनाव में आनंद मोहन जनता दल के टिकट पर महिषी से चुनाव लड़े और कांग्रेस के लहतान चौधरी को 62 हजार से ज्यादा वोट से हराया।

ये वो समय था जब देश में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गई थीं। इन सिफारिशों में सबसे अहम बात थी सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% का आरक्षण देना। जनता दल ने भी इसका समर्थन किया।लेकिन, आनंद मोहन ठहरे आरक्षण विरोधी। उन्होंने 1993 में जनता दल से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई, जिसका नाम ‘बिहार पीपुल्स पार्टी’ यानी बीपीपी रखा। बाद में समता पार्टी से हाथ मिला लिया।

आनंद मोहन के घर बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। इस तस्वीर में जो दिख रहे हैं, वो हैं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। एक समय बिहार में आनंद मोहन को लालू का विकल्प देखा जाने लगा था।

आनंद मोहन के घर बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। इस तस्वीर में जो दिख रहे हैं, वो हैं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर। एक समय बिहार में आनंद मोहन को लालू का विकल्प देखा जाने लगा था।

डीएम की हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए, पहले नेता जिन्हें मौत की सजा मिली थी

जिस समय आनंद मोहन ने अपनी चुनावी राजनीति शुरू की थी, उसी समय बिहार के मुजफ्फरपुर में एक नेता हुआ करते थे छोटन शुक्ला। आनंद मोहन और छोटन शुक्ला की दोस्ती काफी गहरी थी।

1994 में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। आनंद उनके अंतिम संस्कार में भी पहुंचे। छोटन शुक्ला की अंतिम यात्रा के बीच से एक लालबत्ती की गाड़ी गुजर रही थी, जिसमें सवार थे उस समय के गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया।

लालबत्ती की गाड़ी देख भीड़ भड़क उठी और जी कृष्णैया को पीट-पीटकर मार डाला। जी कृष्णैया की हत्या का आरोप आनंद मोहन पर लगा। आरोप था कि उन्हीं के कहने पर भीड़ ने उनकी हत्या की। आनंद की पत्नी लवली आनंद का नाम भी आया।

आनंद मोहन को जेल हुई। 2007 में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुना दी। आनंद मोहन देश के पहले पूर्व सांसद और पूर्व विधायक हैं, जिन्हें मौत की सजा मिली। हालांकि, पटना हाईकोर्ट ने दिसंबर 2008 में मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी जुलाई 2012 में पटना हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। आनंद मोहन अभी भी जेल में ही हैं।

जेल में थे, लेकिन चुनाव जीतते रहे

1996 में लोकसभा चुनाव हुए। उस वक्त आनंद मोहन जेल में थे। जेल से ही उन्होंने समता पार्टी के टिकट पर शिवहर से चुनाव लड़ा और जनता दल के रामचंद्र पूर्वे को 40 हजार से ज्यादा वोटों से हराया। 1998 में फिर उन्होंने शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर। ये चुनाव भी उन्होंने जीत लिया। 1999 और 2004 के लोकसभा चुनाव में भी आनंद मोहन खड़े हुए, लेकिन हार गए।

खुद तो राजनीति में थे, पत्नी को भी लाए

आनंद मोहन ने 13 मार्च 1991 को लवली सिंह से शादी की। लवली स्वतंत्रता सेनानी माणिक प्रसाद सिंह की बेटी हैं। शादी के तीन साल बाद 1994 में लवली आनंद की राजनीति में एंट्री उपचुनाव से हुई। 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए, जिसमें लवली आनंद यहां से जीतकर पहली बार संसद पहुंचीं।

बिहार में लवली आनंद को लोग भाभीजी कहकर बुलाते हैं। लोग बताते हैं कि जब भाभीजी रैली करने आती थीं, तो लाखों की भीड़ इकट्ठा होती थी। इतनी भीड़ तो आनंद मोहन की रैलियों में भी नहीं आती थी। बिहार की राजनीति को करीब से देखने वालों का कहना है कि लवली आनंद की रैलियों में भीड़ देखकर उस समय लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे सरीखे नेता भी दंग रह जाते थे।

हालांकि, लवली आनंद की रैलियों में आने वाली भीड़ वोटों में तब्दील नहीं हो पाती थी। जब वोटिंग होती थी, तो लवली आनंद की हार ही होती थी।

लवली पार्टियां बदलती रहीं, लेकिन जीत न सकीं

आनंद मोहन और लवली आनंद के बारे में कहा जाता है कि जितनी तेजी से लोग कपड़े नहीं बदलते थे, उतनी तेजी से तो ये पार्टियां बदल लेते थे। लवली आनंद पहली बार 1994 में उपचुनाव जीतकर सांसद बनी। उस समय उन्होंने बिहार पीपुल्स पार्टी से चुनाव लड़ा था। उसके बाद 1999 के लोकसभा चुनाव में भी वैशाली से ही खड़ी हुईं, लेकिन हार गईं।

2009 का लोकसभा चुनाव लवली ने कांग्रेस के टिकट पर शिवहर से लड़ा, लेकिन हार गईं। इस बीच 2004 में बिहार पीपुल्स पार्टी का मर्जर कांग्रेस में भी हो गया। 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव में लवली कांग्रेस के टिकट पर ही आलम नगर से खड़ी हुईं, लेकिन ये चुनाव भी हार गईं।

बाद में कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए लवली आनंद सपा में शामिल हो गईं। 2014 के लोकसभा चुनाव में लवली सपा के टिकट पर शिवहर से फिर लड़ीं, लेकिन हार गईं। 2015 के विधानसभा चुनाव में वो जीतन राम मांझी की पार्टी हम (सेक्युलर) से शिवहर से खड़ी हुईं, लेकिन फिर हार गईं।

अब चुनाव की तारीखें आने के बाद लवली आनंद राजद में शामिल हो गई हैं। क्योंकि, वो हमेशा शिवहर से ही लड़ती रही हैं और उनके पति आनंद मोहन भी शिवहर से सांसद रह चुके हैं, इसलिए माना तो यही जा रहा है कि इस बार भी वो शिवहर से ही लड़ सकती हैं। देखते हैं पार्टी बदलने का इस बार क्या नतीजा निकलता है?

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