May 18, 2024 : 12:46 PM
Breaking News
राष्ट्रीय

कांग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही दो विकल्पों में बंटा लगता है, साफ पता चल रहा कि सबकुछ ठीक नहीं

4 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक

संजय कुमार, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार

Advertisement
Advertisement

हाल ही में राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों में कांग्रेस पार्टी में हुईं तकरार बताती हैं कि पार्टी में सबकुछ ठीक नहीं है। ऐसे में यह सोचने की जरूरत है कि इस बहुत पुरानी पार्टी को क्या संकट की ओर धकेल रहा है। क्या ऐसा सिर्फ इसलिए है कि पार्टी हाल ही में कई चुनाव हारी है या इसका कारण पार्टी में अपेक्षाकृत कमजोर वैचारिक संबंध हैं या इसके पीछे कमजोर मौजूदा केंद्रीय नेतृत्व है? क्या हाल ही में उसके नेताओं का दल बदलना सिर्फ उनकी महत्वाकांक्षा और अधीरता की निशानी है या पार्टी में नेताओं के बीच मजबूत पीढ़ीगत विभाजन है?

लोकतांत्रिक देश में कोई पार्टी हमेशा सत्ता में नहीं रह सकती

एक लोकतांत्रिक देश में कोई पार्टी हमेशा सत्ता में नहीं रह सकती है, इसलिए पार्टियों की जीत-हार आम है। भाजपा भी 2004 और 2009 में लगातार दो चुनाव हारी थी लेकिन 2014 में फिर सत्ता में आई। लेकिन उसे कांग्रेस जैसे संकट का सामना नहीं करना पड़ा। इसलिए केवल दो लोकसभा चुनाव हारना कांग्रेस के मौजूदा संकट का कारण नहीं हो सकता।

कांग्रेस की विचारधारा (आधिकारिक) में शायद ही कोई बदलाव आया है। इसलिए इसे पार्टी में संकट का कारण नहीं मान सकते। कमजोर हो या मजबूत, कांग्रेसियों के वैचारिक संबंध ऐतिहासिक रूप से समान रहे हैं। भारतीय मतदाता शायद कांग्रेस के वैचारिक झुकाव को लेकर व्यग्र रहे हों, लेकिन कांग्रेस नेताओं में कोई व्यग्रता नहीं है।

कांग्रेस संकट के कई कारण

शायद परस्पर संबंध वाले तीन कारक- कमजोर केंद्रीय नेतृत्व, पीढ़ीगत विभाजन व महत्वाकांक्षी युवा नेता कांग्रेस के संकट का कारण हो सकते हैं। पहले आखिरी कारक देखते हैं। क्या राजनीति में महत्वाकांक्षी होना गलत है? बिल्कुल नहीं, क्योंकि हमारी दुनिया में राजनीति शायद ही समाजसेवा है।

पार्टी सदस्यों में ऊंचे पद हासिल करने और उन पर बने रहने की महत्वाकांक्षा भी सामान्य है। स्वाभाविक है कि इन गुणों से पार्टी को गुटबाजी, दल-बदल और टूटने आदि का खतरा है, इसलिए पार्टियों को हमेशा तैयार रहना होता है और कांग्रेस का अतीत में ऐसे महत्वाकांक्षी नेताओं की महत्वाकांक्षा सफलतापूर्वक पूरी करने का रिकॉर्ड रहा है।

कांग्रेस में 1967, 1977, 1989 और 1999 में आए ज्यादातर संकटों का समाधान इसलिए हो गया क्योंकि तब केंद्रीय नेतृत्व मजबूत था। लेकिन अब कमजोर केंद्रीय नेतृत्व संकट को सफलतापूर्वक सुलझाने में अक्षम है।

राहुल की लोकप्रियता लगातार घट रही है

कांग्रेस में संकट का असली कारण उस खाली जगह में है, जिसका पार्टी केंद्रीय नेतृत्व को लेकर सामना कर रही है। लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा कराए गए सर्वेक्षणों के मुताबिक जहां नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता साल-दर-साल बढ़ रही है, वहीं राहुल गांधी की लोकप्रियता लगातार गिरी है।

2014 की शुरुआत में प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी 34% भारतीयों की पसंद थे, जबकि 23% ने राहुल गांधी को पसंद किया। लेकिन 2019 तक जहां मोदी की लोकप्रियता 46% पर पहुंच गई, राहुल गांधी की लोकप्रियता गिरकर 19% पर आ गई। यहां तक कि जब प्रवासी मजदूर अचानक लॉकडाउन की वजह से संकट में थे, तब भी मोदी की लोकप्रियता में शायद ही कोई फर्क आया, लेकिन राहुल गांधी की लोकप्रियता बढ़ नहीं पाई। स्पष्ट रूप से, जितने जल्दी हो सके, कांग्रेस को इस समस्या का समाधान करना होगा।

कमजोर नेतृत्व ने बढ़ाया फासला

कमजोर केंद्रीय नेतृत्व ने युवा और बुजुर्ग नेताओं के बीच पीढ़ीगत विभाजन को उभरने का अवसर दिया है। बुजुर्ग नेता अनुभव के आधार पर अधिकार जताते हैं वहीं युवा पीढ़ी बेहतर शिक्षा और सक्रियता के आधार पर निर्णय लेने में अपना हिस्सा चाहते हैं। दुर्भाग्य से, पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी दो विकल्पों में बंटा लगता है।

गुटबाजी और संकट, दलगत राजनीति में सामान्य हैं। मुद्दा उनके प्रबंधन का है और यह उसके नेतृत्व और उनकी संकट के प्रबंधन की क्षमताओं व कार्य के तरीकों पर काफी निर्भर करता है। स्पष्ट रूप से कांग्रेस अपने मौजूदा कमजोर नेतृत्व की वजह से गुटबाजी और संकट के प्रबंधन में असफल रही है। अब पार्टी के समक्ष बड़ी चुनौती यह है कि वह यह सोचे कि नेताओं, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में आत्मविश्वास कैसे बनाया जाए।

कांग्रेस के पुनरुत्थान का रास्ता आसान नहीं होगा
कांग्रेस के पुनरुत्थान का रास्ता आसान नहीं होगा। पिछले दो लोकसभा चुनावों में वोट में 20% गिरावट के साथ हार, पार्टी की सबसे बड़ी हार रही है। वह लंबे समय तक हिन्दी पट्‌टी में सत्ता से बाहर रही है, जहां बड़ी संख्या में लोकसभा सीट हैं। उप्र, बिहार, तमिलनाडु और प. बंगाल जैसे राज्यों में वह दो दशकों से सत्ता में नहीं रही है और उसका वोट शेयर एक अंक में आ गया है।

दिल्ली और आंध्र प्रदेश में भी ऐसा ही है। वह उन राज्यों में दल-बदल और पलायन का सामना कर रही है, जहां हाल के वर्षों में उसने विधानसभा चुनाव जीते हैं। कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए पुनरुत्थान का काम बहुत मुश्किल होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Advertisement

0

Related posts

संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने हांगकांग पर चीन के बर्ताव पर जताई चिंता, कहा- इस मामले पर हमारी नजर बनी हुई है

News Blast

एक दिन में सबसे ज्यादा 12 हजार 656 संक्रमित बढ़े, दिल्ली में भी रिकॉर्ड 2414 रिपोर्ट पॉजिटिव; देश में अब तक 3.66 लाख केस

News Blast

दिल्ली में कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या 1 लाख 71 हजार के पार 1954 नए मरीज मिले,15 की मौत

News Blast

टिप्पणी दें