May 2, 2024 : 3:08 PM
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स्मार्टफ़ोन कैसे कर रहा बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का नुक़सान

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कम उम्र में बच्चों को स्मार्टफ़ोन देने से उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अगर आपको लगता है कि कम उम्र में ही बच्चे के हाथ में स्मार्टफ़ोन या टैबलेट देने से उसके ज्ञान में बढ़ोतरी होगी या डिजिटल दुनिया की उसकी समझ बढ़ेगी, तो आप ग़लत सोच रहे हैं.
ये कहना है अमेरिकी ग़ैर-सरकारी संस्था ‘सेपियन लैब्स’ का.
ये संस्था साल 2016 से लोगों के दिमाग़ को समझने के मिशन पर काम कर रही है.
कोरोना काल के दौरान जब बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन शुरू हुई थी तो ये बहस तेज़ हुई थी कि बच्चों का मोबाइल पर स्क्रीन टाइम कितना होना चाहिए?रिपोर्ट में क्या कहा गया है?
सेपियन लैब्स की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, कम उम्र में जब बच्चों को स्मार्टफ़ोन दिए जाते हैं तो युवावस्था आते-आते उनके दिमाग़ पर विपरीत असर दिखने लगता है.

रिपोर्ट 40 देशों के 2,76,969 युवाओं से बातचीत करके तैयार की गई है और ये सर्वेक्षण इसी साल जनवरी से अप्रैल महीने में किया गया.
इन 40 देशों में भारत भी शामिल है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 74 फ़ीसदी महिलाएँ, जिन्हें 6 साल की उम्र में स्मार्टफ़ोन दिया गया था, उन्हें युवावस्था में मेंटल हेल्थ को लेकर परेशानी आई.
एमसीक्यू (मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आकलन) में इन महिलाओं का स्तर कम रहा.जिन लड़कियों को 10 साल की उम्र में स्मार्टफ़ोन दिया गया, उनमें 61 फ़ीसदी का एमसीक्यू स्तर कम या ख़राब रहा.
कुछ ऐसा ही हाल 15 साल की 61 फ़ीसदी लड़कियों का रहा.
दूसरी ओर 18 साल की लड़कियों को जब स्मार्टफ़ोन मिला, तो ये आँकड़ा 48 फ़ीसदी ही रहा.
वहीं जब छह साल के लड़कों को स्मार्टफ़ोन दिया गया, तो केवल 42 फ़ीसदी में ही एमसीक्यू के स्तर में कमी देखी गई.
सफ़दरजंग अस्पताल में काम कर चुके पूर्व मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉक्टर पंकज कुमार वर्मा कहते हैं कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं दिखता और इसे पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है.उन्होंने बताया कि इसका एक कारण ये हो सकता है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों में किशोरावस्था पहले आती है जिसमें मानसिक और शारीरिक बदलाव शामिल हैं.
जब लड़कियों का एक्सपोज़र कम उम्र में होता है तो इस अवस्था में आते-आते लड़कों के मुक़ाबले वे ज़्यादा प्रभावित होती हैं.
इस शोध ये भी कहा गया है जिन बच्चों को कम उम्र में स्मार्टफ़ोन दिए गए, उनमें आत्महत्या के विचार, दूसरों के प्रति ग़ुस्सा, सच्चाई से दूर रहना और हेलोसिनेशन होना शामिल है. बच्चों पर असर
इसी से मिलती-जुलती कहानी छवि (बदला हुआ नाम) की भी है और वो दो बेटियों की माँ हैं.
वो आमतौर पर घर के काम में व्यस्त रहती थीं और बेटी ज़्यादा परेशान न करे, इसके लिए उन्होंने अपनी 22 महीने की बेटी को स्मार्टफ़ोन पकड़ा दिया.
छवि अपनी बेटी को यूट्यूब पर कार्टून लगा कर फ़ोन थमा देतीं और घर के काम में लग जातीं.
ये सिलसिला बड़ी बेटी के स्कूल से लौटने तक चलता रहता.
हालाँकि छवि ने ये कभी नहीं सोचा था कि नासमझी में अपनी बेटी के हाथों में थमाया गया स्मार्टफ़ोन उनके लिए परेशानी का सबब बन जाएगा.
मनोवैज्ञानिक डॉक्टर पूजा शिवम कहती हैं कि छवि जब अपनी बेटी को लेकर आईं, तो वो उम्र के मुताबिक़ बोल सकती थी. उसका विकास भी हुआ था, लेकिन उसमें बहुत एंग्ज़ाइटी थी.
वो बताती हैं, ”सात से आठ घंटे तक वो केवल स्मार्टफ़ोन पर रहती थी. छवि उसे यूट्यूब पर कार्टून लगा कर देती. पर सोचिए वहाँ से यूट्यूब पर वो क्या-क्या देख रही होगी, उसका हम केवल अंदाज़ा लगा सकते हैं.”

बच्चों के दिमाग़ पर असर-
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे दिमाग़ में कई हज़ार चीज़ें सिग्नल के ज़रिए पहुँच रही होती हैं.
जब कोई स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करता है तो उसे वीडियो और ऑडियो तो मिल ही रहा है, वहीं कुछ ऐसी चीज़ें भी दिमाग़ में प्रवेश कर रही होती हैं, जो उसमें रोमांच और जिज्ञासा पैदा करती हैं. और ये तो चुंबक की तरह काम करता है.
तो ऐसे में आप ये सोचिए कि जब बच्चे को इस तरह एक्सपोज़र मिलेगा, तो क्या होगा?
डॉक्टर पंकज कुमार वर्मा, रिजुवेनेट माइंड क्लीनिक भी चलाते हैं.
इस सवाल का जवाब देते हुए वो कहते हैं कि कोरोना के दौरान भी हमने बच्चों में ये देखा था कि स्क्रीन समय बढ़ने और केवल घरों में बंद रहने से वे चिड़चिड़े हो गए, साथ ही एंग्ज़ाइटी और अवसाद के शिकार हो गए.
वे आगे बताते हैं, ”छोटे बच्चों में दिमाग़ का विकास हो ही रहा होता है. उसे पता ही नहीं होता कि वो जो देख रहा है, वो उसके लिए अच्छा है या बुरा. दूसरी बात ये है कि अगर वो किसी कार्टून को देखकर अच्छा महसूस करता है तो दिमाग़ एक केमिकल रिलीज़ करता है- डोपामाइन जो उसे ख़ुशी महसूस कराता है.”

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