कर्नाटक में मुसलमान छात्राओं के हिजाब पहनने को लेकर जारी विवाद के बीच वहां स्कूल खोल दिए गए हैं.
शिवमोगा से ख़बर आई कि प्री-फ़ाइनल परीक्षा देने आई कुछ छात्राओं ने हिजाब उतारने से इंकार कर दिया और परीक्षा दिए बिना घर वापस लौट गईं.
इसके अलावा मांड्या, कलबुर्गी और बेलगावी के एक-एक स्कूल में शिक्षिकाओं के समझाने पर छात्राओं ने हिजाब निकालकर कक्षाएं लीं.
इस बात पर पूरे देश में बहस तेज़ है कि क्या ‘हिजाब पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा’ है?कुछ लोग इसे धार्मिक और अभिव्यक्ति की आज़ादी और स्कूल यूनिफॉर्म कोड से जोड़कर देख रहे हैं. वहीं, इस विवाद के बीच कई लोग कह रहे हैं कि चाहे ‘हिजाब हो या ना हो लड़कियां स्कूल में होनी चाहिए’. मतलब ये है कि लड़कियों की पढ़ाई बाधित नहीं होनी चाहिए.
कर्नाटक सरकार ने पाँच फ़रवरी को राज्य के प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों में यूनिफ़ॉर्म अनिवार्य करने का नया आदेश जारी कर दिया. इसके साथ ही हिजाब और भगवा शॉल पहनने पर पाबंदी लगा दी गई.
फ़िलहाल इस मुद्दे पर हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है.
कई देशों जैसे फ्रांस में 18 साल की लड़कियों के सार्वजनिक जगहों पर हिजाब पहनने पर पांबदी है. इसके अलावा बेल्जियम, नीदरलैंड्स और चीन में भी हिजाब पहनने पर रोक है.
भारत में कुल आबादी का लगभग 14 फ़ीसद मुसलमान हैं और यहां सार्वजनिक तौर पर हिजाब या बुर्का पहनने पर कोई रोक नहीं है.
कई हैं सवाल
कर्नाटक में जिस तरह से ये मुद्दा गर्म हुआ उस पर भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की सह-संस्थापक ज़ाकिया सोमन कहती हैं कि ये मामला एक शिक्षण संस्थान का था जो ‘हाथ से निकल गया और इसने राजनीतिक और हिंदू- मुस्लिम मामले का रूप ले लिया.’
इस बात पर सहमति जताती हैं कि कक्षा या क्लास में ‘मज़हब को नहीं लाया जाना चाहिए और यूनिफ़ॉर्म का पालन करना चाहिए.’
ज़ाकिया सोमन कहती हैं कि भारत में मज़हब चारों ओर है. राजनीति में मज़हब के नाम पर ही वोट बटोरे जा रहे हैं तो उन बच्चियों के हिजाब पहनने से क्यों एतराज है. इन सबके बीच में ये लड़कियां पिस रही हैं और उनकी शिक्षा का अधिकार छीना जा रहा है.
उनके अनुसार, ”हिजाब ऑर नो हिजाब गर्ल शुड बी इन स्कूल. यानी हिजाब हो या ना हो लेकिन लड़कियां स्कूल में होनी चाहिए.”
सोशल मीडिया पर भी ये बहस गर्म है कि सबसे ज़्यादा ध्यान इस बार पर दिया जाना चाहिए कि बच्चियों के पास स्कूल जाने का अधिकार रहे.
मुद्दा यूनिफ़ॉर्म का नहीं‘
सामाजिक कार्यकर्ता फ़राह नक़वी कहती हैं कि धर्म में किसे क्या ज़रूरी लगता है ये एक व्यक्तिगत समझ या अभिरुचि से जुड़ा मामला है. ये एक बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन ये संविधान, शिक्षा और इन लड़कियों की अपनी पसंद का मामला होना चाहिए.
वे सवाल उठाती हैं,” कोई महिला अगर सिंदूर या मंगलसूत्र पहनकर पढ़ने आना चाहती है या कोई विभूति लगा कर स्कूल जाएगा तो क्या उसे मना कर दिया जाएगा?”
उनके अनुसार, ”इस पर सवाल खड़े करने वाले लोग तर्क देंगे कि यहां आपके चयन का मसला ही नहीं है क्योंकि आपको दबाया गया है वग़ैरह वग़ैरह लेकिन अहम बात ये है कि लड़कियां शिक्षा पाना चाह रही हैं या नहीं.”
स्कूल के यूनिफ़ॉर्म कोड पर वे कहती हैं, ”यूनिफ़ॉर्म का मतलब क्या था , यही कि कोई क्लास या तबक़ा अलग ना दिखे. वे क्या पहनें, वो ढंकना चाहती हैं या नहीं, संविधान में उनको इस मामले में अधिकार दिए गए हैं. कोई ये नहीं कह रहा कि हम स्कूल की यूनिफ़ॉर्म नहीं पहनेंगे. लेकिन ये मुद्दा अब यूनिफ़ॉर्म का है ही नहीं.”
इस मुद्दे पर कर्नाटक हाईकोर्ट में हो रही सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील देवदत्त कामत ने सोमवार को कहा, “मुस्लिम लड़कियों का हिजाब पहनना और सिख समुदाय के लोगों का पगड़ी पहनना संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार ही है. केंद्रीय विद्यालय में भी सशर्त हिजाब पहनने की अनुमति है. जिसमें ये नियम है कि हिजाब स्कूल यूनिफ़ॉर्म से मैचिंग होना चाहिए.”

छात्राओं पर कितना है दबाव?
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर ख़ालिद ख़ान कहते हैं कि स्कूल में ‘ड्रेस कोड से कोई इंकार नहीं करता लेकिन यहां ये देखा जाना चाहिए कि हिजाब को लेकर परिवार कितना दबाव डालते हैं.’
रोज़गार और शिक्षा जैसे विषयों पर शोध करने वाले ख़ालिद ख़ान के अनुसार, ”जिन परिवारों में लड़कियों पर ऐसा दबाव होगा या है वहां इस मुद्दे पर बहस होती होगी. शायद लड़कियों की तरफ़ से भी कहा जाता होता होगा कि हम इस तरह की कल्चरल प्रैक्टिस को जारी रखेंगे लेकिन आप हमें पढ़ने दीजिए.”
शिक्षण संस्थानों में पाबंदी लगाई जाती है तो उन घरों में क्या होगा जिनके मुखिया ऐसी स्थिति में इन लड़कियों को रज़ामंदी नहीं देंगे.
राष्ट्रीय सैंपल सर्वे 2017-18 के अनुसार 19 फ़ीसद मुस्लिम लड़कियों ने शादी की वजह से स्कूल छोड़ दिया. हिंदू और अन्य अल्पसंख्यकों में ये आंकड़ा 16 फ़ीसद है.
पहचान बना मुद्दा
इस बात से ख़ालिद ख़ान भी सहमत दिखते हैं.
वो कहते हैं कि पिछले छह सात सालों में ये देखा जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय में ये भावना आ रही है कि ‘हमारी संस्कृति, धर्म और पहचान पर हमला किया जा रहा है. ये चलन मुसलमान और हिंदू युवाओं में ज़्यादा दिखाई देता है.’
उनके अनुसार, ” इसे आइसोलेशन में नहीं देखा जा सकता और इसके लिए राजनीतिक परिदृष्य ज़िम्मेदार है.”
वो आगे कहते हैं कि ऐसी ही बात लड़कियों में भी दिखाई देती है क्योंकि ‘कुरान में चादर रखने की बात तो कही गई है लेकिन ये नहीं कहा गया कि चेहरा छिपा लीजिए.’
उनके अनुसार, “मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथ क़ुरान में पुरूष और महिलाओं दोनों के लिए शरीर ढंकने की बात कही गई है.”
फ़राह नक़वी कहती हैं कि ये ‘पितृसत्ता का मुद्दा हो सकता है लेकिन आज ये बहस इस मुद्दे पर नहीं है.’
वो कहती हैं, “मुद्दा है कि एक जगह पर कुछ मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनना पसंद करती हैं वो किस वजह से पहनती हैं. हिजाब उन्हें अपने ईमान का हिस्सा लगता है, इससे वे सुरक्षित महसूस करती हैं. और वो इस राजनीति के ख़िलाफ़ खड़ी हैं जो कहती है कि मुस्लिम अब ग़ायब हो जाएं.”
लड़कियों की पढ़ाई जारी रखने पर ज़ोर देते हुए फ़राह नक़वी कहती हैं, “उनकी पढ़ाई में बाधा ना उन्होंने डाली ना उनके हिजाब ने. बाधा कहीं और से आई है. सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की बात करती है. ऐसे में वो चाहे जींस या हिजाब पहनें उसकी शिक्षा को मारने का हक़ किसी भी सरकार को नहीं है.”