May 15, 2024 : 6:11 PM
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न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) क्या है और क्यों चाहते हैं किसान इसकी गारंटी

Upमोदी सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का बिल दोनों सदनों में पारित कर दिया है, लेकिन पिछले एक साल से धरने पर बैठे किसान इन क़ानूनों के वापसी के साथ-साथ, लगातार एक मांग करते आएं हैं कि उन्हें उनकी फसलों पर एमएसपी की गारंटी दी जाए.

पहला सवाल कि एमएसपी क्या है और इसकी क्या ज़रूरत है?किसानों के हित के लिए एमएसपी की व्यवस्था सालों से चल रही है. केंद्र सरकार फसलों की एक न्यूनतम कीमत तय करती है. इसे ही एमएसपी कहते हैं. मान लीजिए अगर कभी फसलों की क़ीमत बाज़ार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार इस एमएसपी पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है ताकि किसानों को नुक़सान से बचाया जा सके. 60 के दशक में सरकार ने अन्न की कमी से बचाने के लिए सबसे पहले गेहूं पर एमएसपी शुरू की ताकि सरकार किसानों से गेहूं खरीद कर अपनी पीडीएस योजना के तहत ग़रीबों को बांट सके

एमएसपी को लेकर किसानों में डर क्या है?

वैसे तो एमएसपी तय होती है इस आधार पर कि किसानों को उनकी लागत का 50 फीसद रिटर्न मिल जाए लेकिन असल में ऐसा होता नहीं. कई जगह तो किसानों को एमएसपी से कम कीमत पर भी फसल बेचनी पड़ती है. और जब इसको लेकर कोई क़ानून ही नहीं है तो फिर किस अदालत में जाकर वह अपना हक़ मांगेंगे. सरकार चाहे तो एमएसपी कभी भी रोक भी सकती है क्योंकि ये सिर्फ एक नीति है कानून नहीं. और यही डर किसानों को है.

कृषि मंत्रालय का एक विभाग कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कोस्ट्स एंड प्राइसेस गन्ने पर एमएसपी तय करता है. ये बस एक विभाग है जो सुझाव देता है, ये कोई ऐसी संस्था नहीं है जो कानूनी रूप से एमएसपी लागू कर सके.

अगस्त 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी के मुताबिक़ 6 फीसद किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिल पाया है. बिहार में एमएसपी से खरीद नहीं की जाती. वहां राज्य सरकार ने प्राइमरी एग्रीकल्चर कॉपरेटिव सोसाइटीज़ यानी पैक्स के गठन किया था जो किसानों से अनाज खरीदती है. लेकिन किसानों की शिकायत है कि वहां पैक्स बहुत कम खरीद करती है, देर से करती है और ज़्यादातर उन्हें अपनी फसल कम कीमत पर बिचौलियों को बेचनी पड़ती है.

किस-किस फसल पर एमएसपी मिलता है?

इसमें 7 अनाज वाली फसलें हैं- धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ.

5 दालें – चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर

7 ऑयलसीड – मूंग, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, तिल, नाइजर या काला तिल, कुसुम

4 अन्य फसल – गन्ना, कपास, जूट, नारियल

इनमें से सिर्फ गन्ना ही है जिस पर कुछ हद तक कानूनी पाबंदी लागू होती है क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत एक आदेश के मुताबिक़ गन्ने पर उचित और लाभकारी मूल्य देना ज़रूरी है.

एसएसपी को लेकर किसानों की मांग क्या है?

आंदोलन कर रहे किसानों की मांग है कि सरकार एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल ख़रीद को अपराध घोषित करे और एमएसपी पर सरकारी ख़रीद लागू रहे.

साथ ही दूसरी फसलों को भी एमएसपी के दायरे में लाया जाए. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी कह चुके हैं कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी और सरकारी खरीद भी जारी रहेगी. लेकिन किसान संगठन चाहते हैं कि उन्हें ये बात क़ानून बना कर लिखित में दी जाए.

सरकार के लिए एमएसपी कितनी भारी पड़ती है ?

ये जो 23 फसलें हैं ये तो भारत के कृषि उत्पाद का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही हैं. मछली पालन, पशु पालन, सब्जियां, फल वगैरह इनमें शामिल ही नहीं हैं.

अगर इन 23 फसलों के आँकड़ें देखें जाएं तो साल 2019-20 में सभी को मिलाकर 10.78 लाख करोड़ रुपये के बराबर का उत्पादन हुआ. लेकिन ये सारी फसल बेचने के लिए नहीं होती, किसानों के अपने इस्तेमाल के लिए भी होती है,बाज़ार में बिकने के लिए इन सब फसलों का अनुपात भी अलग होता है. जैसे 50 फीसदी रागी का होगा, तो 90 फीसद दालों का होगा. गेहूं 75 फीसदी होगा. तो अगर औसत 75 फीसदी भी मान लें तो ये 8 लाख करोड़ से कुछ ऊपर का उत्पादन होगा.

तो सवाल ये कि अगर सरकार को किसानों को एमएसपी की गारंटी देनी है तो क्या इतना खर्च सरकार को करना होगा?

इसका जवाब है नहीं. इन 23 में से गन्ने को निकाल दीजिए क्योंकि वो पैसा सरकार को नहीं देना पड़ता, वो शुगर मिलें देती हैं. सरकार अपनी एजेंसियों के ज़रिए पहले ही कुछ फसलों को खरीद लेती है. जिसकी कुल कीमत 2019-20 में 2.7 लाख करोड़ थी.

सरकारी एजेंसियों को बाज़ार की सारी फसल खरीदने की ज़रूरत होती भी नहीं क्योंकि अगर सरकार कुल उत्पादन का एक तिहाई या एक चौथाई भी खरीद ले तो बाज़ार में कीमत अपने आप ऊपर आ जाती है. तो किसान अपनी फसल उस कीमत पर बाहर बेच देते हैं. सरकार जो खरीदती है, उसे भी बेचती है, हालांकि ये सब्सिडी वाली कीमत होती है. लेकिन इस सबको देखें तो सरकार को ये खरीद हर साल डेढ़ करोड़ तक की पड़ती है.

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