सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में रियल एस्टेट कंपनी सुपरटेक को दिल्ली से सटे नोएडा में अपनी दो बहुमंज़िला इमारतों को गिराने का आदेश दिया है.
सुपरटेक ने एमराल्ड कोर्ट में दो एपेक्स और सेयाने नाम के 40 मंज़िल ऊंचे दो टॉवर बनाए थे जिनमें लगभग 1000 फ़्लैट थे.
लेकिन एमराल्ड कोर्ट के निवासियों ने कंपनी के इस कदम का विरोध किया और वे इसके ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाइकोर्ट तक गए.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुपरटेक और एमराल्ड कोर्ट ओनर रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन और अन्य के बीच जारी विवाद में सुपरटेक के ख़िलाफ़ फैसला दिया था.
इसके बाद सुपरटेक ने सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगवा दी थी.
लेकिन मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को स्वीकार करते हुए इन टॉवरों को गिराने का आदेश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की बेंच ने अपने आदेश में कहा है कि नोएडा स्थित सुपरटेक एमराल्ड कोर्ट में स्थित इन दोनों टॉवरों के निर्माण में नियमों का उल्लंघन हुआ है और इन्हें अगले दो महीनों के अंदर सुपरटेक द्वारा अपने ही खर्च पर गिरा देना चाहिए.”
कोर्ट ने ये भी कहा है कि कंपनी द्वारा फ़्लैट मालिकों को 12 फीसद ब्याज़ के साथ उनका पैसा लौटाया जाना चाहिए.
बता दें कि इस मामले में अदालतों द्वारा नोएडा अथॉरिटी एवं सुपरटेक के बीच मिलीभगत को लेकर तीखी टिप्पणियां की गयी हैं.
कोर्ट ने कहा है कि सुपरटेक ने जो किया वो बहुत ग़लत है क्योंकि इन टॉवरों का निर्माण हाउसिंग सोसाइटी को मिली साझा हरित ज़मीन पर किया गया है.
नोएडा अथॉरिटी को फटकार लगाते हुए कोर्ट ने 4 अगस्त को कहा था कि उसके अंग-अंग से भ्रष्टाचार की बू आती है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी दिया था यही फ़ैसला
इससे पहले साल 2014 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए इन दोनों टॉवरों को चार महीने के भीतर गिराने का आदेश दिया था.
इसके साथ ही नोएडा अथॉरिटी के अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के आदेश भी जारी किए थे.
लेकिन सुपरटैक द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल किए जाने के बाद हाइकोर्ट के आदेश पर रोक लग गयी.
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एनबीसीसी को जांच करने का आदेश दिया था. और बीती चार अगस्त को सभी दलीलों के बाद अपना फ़ैसला सुरक्षित कर लिया था.
मंगलवार को जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की बेंच ने कहा है कि 11 अप्रैल, 2014 को इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा दिया गया फैसले में हस्तक्षेप करने की ज़रूरत नहीं दिखती है.।