April 29, 2024 : 7:40 AM
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हम 7 साथ हैं:सेंसरशिप कानून में बदलाव को लेकर बॉलीवुड के 7 संगठन सरकार के खिलाफ, कानून में बदलाव नहीं चाहिए

मुंबईएक घंटा पहले

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  • प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स, आर्टिस्ट्स और स्क्रिप्ट राइटर्स, वर्कर्स के एसोसिएशन भी साथ आए

कोरोना की वजह से अरबों का घाटा झेल रहे बॉलीवुड को जले पर नमक छिड़कने जैसे सेंसरशिप सुधार के खिलाफ पूरी इंडस्ट्री ने हाथ मिला लिया है। इंडस्ट्री के प्रमुख सात संगठनों ने साथ मिलकर एक साझा खत सरकार को भेज दिया है।

बॉलीवुड के प्रोड्यूसर्स, डायरेक्टर्स, राइटर्स, आर्टिस्ट और वर्कर्स के सारे संगठनो ने एक संयुक्त खत भेजकर कहा है कि फिल्म की सरकार द्वारा समीक्षा की उन्हे मंजूर नहीं है। यह सुधार पूरी तरह से गैरकानूनी है और इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का हनन होता है। ऐसी समीक्षा सिर्फ और सिर्फ कोर्ट द्वारा ही होनी चाहिए।

सरकार को साझा खत भेजने वाले सात संगठन

  • प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ( पीजीआई)
  • इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ( इम्पा)
  • इंडियन फिल्म एंड टेलिविज़न प्रोड्यूसर्स काउंसिल ( आईएफटीपीसी)
  • फेडरेशन ऑफ वेस्ट इंडियन सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन (एफडब्ल्यूआईसीई)
  • इंडियन फिल्म एंड टेलीविज़न डायरेक्टर्स एसोसिएशन (आईफटीडीए)
  • वेस्टर्न इंडिया फिल्म प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (डबल्यू आईएफपीए)
  • स्क्रीन राइटर्स एसोसिएशन

32 संगठन हैं बॉलीवुड के

प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, राइटर, आर्टिस्ट एसोसिएशन और फिल्म क्राफ्ट के टेक्निशियन समेत 32 संस्था के फेडरेशन तकरीबन सारे बॉलीवुड का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सब संगठन ने साथ मिलकर केन्द्र सरकार को खत भेजा है इसका मतलब यह है कि सेंसरशिप के कानून के खिलाफ समूचा बॉलीवुड एकजुट हो गया है।

सरकार ने सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 में सुधार का ड्राफ्ट बनाया है और इसे सिनेमेटोग्राफ एमेंडमेंट बिल 2021 नाम से सार्वजनिक किया है। इस पर सरकार ने सुझाव देने को कहा था । यह सुझाव देने की अंतिम तिथि 2 जुलाई की थी।

( क्या है यह पूरा मामला यहां पढ़िए।)

सरकार को संदेश मिले कि इस मामले पर बॉलीवुड एक है

प्रोड्यूसर्स गिल्ड के सूत्रों ने ‘दैनिक भास्कर’ से पुष्टि करते हुए कहा कि इस मामले में पूरा बॉलीवुड एक साथ है, यह संदेश मिले इसके लिए सारे संगठनों ने एक ही साझा खत में अपनी बात रखने का फैसला किया है।

यह खत में साफ साफ कहा गया है कि सेंसर सर्टिफिकेट पाने के बाद रिलीज हो चुकी फिल्म की सरकार द्वारा पुनः: समीक्षा की जाए, यह प्रस्ताव बेहद चिंताजनक है।

इस खत में कई सारे कानूनी तर्क और व्यवहारिक कारणों के साथ यह भी कहा गया है कि यह दरख्वास्त कानूनी तरीके से सही नहीं है। साथ में यह संविधान में जो अधिकार दिए गए हैं, उसकी भावना के भी खिलाफ है।

सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है

खत में बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट 2020 में ही एक फैसले में यह स्पष्ट कर चुका है कि सीबीएफसी (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन) द्वारा प्रमाणपत्र देने के बाद उनकी प्रशासनिक समीक्षा संविधान के खिलाफ होगी।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में स्पष्ट किया गया था कि एक फिल्म के प्रति समाज के हर वर्ग में अपना-अपना मत हो सकता है, अलग मत होने से यह जरूरी नहीं कि केंद्र सरकार द्वारा सेंसर बोर्ड के फैसले की समीक्षा की जाए या फिर उसे निरस्त किया जाए।

संयुक्त ज्ञापन में कहा गया है कि संविधान के आर्टिकल 19 (1) के तहत जो अधिकार मिलता है, उसके तहत ही सारे प्रोड्यूसर अपनी फिल्म का निर्माण करते हैं।

सीबीएफसी कानून के दायरे में ही फिल्म सर्टिफाई करता है

ज्ञापन में बताया गया है कि जब कोई फिल्म सीबीएफसी के पास आती है, तो सीबीएफसी सिनेमेटोग्राफ एक्ट के सेक्शन 5 (बी) 1 के तहत वह फिल्म की पूरी समीक्षा करने बाद ही तय करता है कि फिल्म सार्वजनिक प्रदर्शन के योग्य है या नहीं।

सिनेमेटोग्राफ एक्ट का सेक्शन 5 (बी) 1 में यह दर्शाया गया है कि फिल्म को प्रमाणपत्र देने वाले सक्षम संस्था को अगर यह लगे कि फिल्म या उसका कोई हिस्सा संविधान के आर्टिकल 19 में बताए गए निर्देशों के अनुसार देश की सुरक्षा, संप्रभुता, विदेशी राष्ट्रों से संबंध, सार्वजनिक शांति, शिष्टता और नैतिकता का उल्लंघन करता है या वह किसी की बदनामी, अदालत का तिरस्कार करता है, किसी को उकसाने का काम कर सकता है, तो उसे सार्वजनिक प्रदर्शन के हेतु प्रमाण पत्र नहीं दिया जाएगा

समीक्षा सिर्फ कोर्ट करे, नौकरशाही नहीं

यह स्थिति में अगर सीबीएफसी के फैसले की समीक्षा करने की सत्ता सिर्फ और सिर्फ अदालत को है। किसी प्रशासनिक प्रणाली या तो फिर नौकरशाही यह फैसला कभी नहीं कर सकती ऐसा इस साझा खत में बताया गया है।

इस खत में बताया गया है कि सबसे बडी चिंता की बात यह है कि नए सुधार में सूचित किया गया है कि सरकार के सामने किसी भी रेफरेंस (शिकायत या फिर ज्ञापन) आने पर वह फिल्म की समीक्षा का आदेश कर सकती है।

यह रेफरेंस गैर न्यायिक संज्ञा है। यहां यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार किस आधार पर यह रेफरेंस को संज्ञान में लेना है, कोई व्यक्ति किस आधार पर यह तय कर लेगा कि यह फिल्म दिखाने योग्य नहीं या फिर ऐसा रेफरेंस कौन भेज सकता है।

इससे किसी भी व्यक्ति को ऐसा रेफरेंस भेजने का अधिकार मिल जाएगा। इससे सरकार और सीबीएफसी का बोझ बढ़ेगा।

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