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देश की करीब 20% आबादी मानसिक रूप से बीमार; एक्सपर्ट्स की सलाह- ऐसे लोग अकेले और अंधेरे में न रहें, रूटीन को फॉलो करें, क्योंकि डिप्रेशन का अंत है मौत

  • डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति को सीधे सलाह न देने लगें, पहले उनकी बात सुनें ताकि वो कनेक्टेड महसूस करे
  • एक्सपर्ट्स के मुताबिक, डिप्रेशन को खत्म करने का बेहतर उपाय है स्विमिंग, म्यूजिक सुनें, अपनों से बात करें
निसर्ग दीक्षित

निसर्ग दीक्षित

Jun 20, 2020, 08:51 AM IST

14 जून, दिन रविवार। खबर आती है कि एक्टर सुशांत सिंह राजपूत ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। जिसने भी सुना, हर कोई दंग रह गया। हर किसी के जेहन में बरबस कुछ सवाल आए? आखिर हुआ क्या? कामयाब सुशांत ने ऐसा किया क्यों? फिर पता चलता है कि सुशांत डिप्रेशन का शिकार थे।

खैर, यह पहला वाकया नहीं है, जब किसी सेलिब्रिटी ने डिप्रेस्ड होकर अपनी जान दी हो। इस फेहरिस्त में कई और नाम भी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में 26.4 करोड़ से ज्यादा लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं। 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 7.5% भारतीयों को किसी न किसी तरह का मानसिक रोग है, इनमें से 70% को ही इलाज मिल पाता है। 2020 में भारत की करीब 20 फीसदी आबादी मानसिक रूप से बीमार या डिप्रेशन का शिकार हो सकती है। पुरुषों से ज्यादा महिलाएं डिप्रेशन से पीड़ित हैं।

हर सात में एक भारतीय मेंटल डिसऑर्डर का शिकार

  • द लैंसेट की एक स्टडी बताती है कि 2017 में 19.73 करोड़ भारतीय मेंटल डिसऑर्डर से जूझ रहे थे। इनमें से 4.57 करोड़ डिप्रेसिव डिसॉर्डर और 4.49 करोड़ लोग घबराहट का शिकार थे। स्टडी के अनुसार, 2017 में हर सात में से एक भारतीय मेंटल डिसऑर्डर से ग्रस्त था। 1990 के बाद से भारत के कुल रोग भार में मेंटल डिसऑर्डर का अनुपात योगदान लगभग दोगुना हो गया है।

डिप्रेशन का अंत सुसाइड है

  • अहमदाबाद की साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर दीप्ति जोशी बताती हैं कि डिप्रेशन का अंत सुसाइड ही है। डब्ल्यूएचओ भी इस बात को मानता है। डॉक्टर दीप्ति के मुताबिक, डिप्रेशन से जूझ रहे व्यक्ति में इंटेलिजेंस उपयोग करने की क्षमता खत्म हो जाती है।
  • अब सवाल उठता है कि भारतीय समाज में डिप्रेशन जैसी चीज इतनी तेजी से कैसे फैल रही है। राजस्थान के उदयपुर स्थित गीतांजलि हॉस्पिटल में असिस्टेंट प्रोफेसर और साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर शिखा शर्मा इसका जिम्मेदार समाज को मानती हैं। वह कहती हैं कि हमारी सोसाइटी में अवेयरनेस नहीं है और एक्सेप्टेंस भी नहीं है। इसी वजह से लोग इसे नजरअंदाज कर देते हैं।

पागलपन नहीं है डिप्रेशन
डॉक्टर शिखा के मुताबिक, हमारी सोसाइटी में डिप्रेशन को पागलपन से जोड़ देते हैं। अगर कोई डॉक्टर के पास भी गया है तो उसे पागल समझ लिया जाता है। कोई समझता नहीं है कि डिप्रेशन क्या है? अगर किसी को स्ट्रेस या एन्जायटी है तो उसे भी डिप्रेशन बता देते हैं। जबकि डॉक्टर दीप्ति बताती हैं कि डिप्रेशन पागलपन नहीं है, क्योंकि पागल होने पर लोग कैमिल इंबैलेंस होने के कारण अनरियलिस्टिक हो जाते हैं।

सोशल प्रेशर के कारण व्यक्ति खुद की परेशानी जाहिर नहीं कर पाता

  • सोशल प्रेशर के कारण भी डिप्रेशन के मामलों में इजाफा हुआ है। डॉक्टर शिखा कहती हैं कि हमारे समाज में किसी व्यक्ति की इतनी खूबियां गिना दी जाती हैं कि अगर कोई दुख है तो बता भी नहीं पाता है। 
  • शिखा बताती हैं कि अगर बच्चों के लिहाज से देखा जाए तो बचपन से ही बच्चे को पैंपर कर बताया जाता है कि तुम ये कर सकते हो और वो कर सकते हो। ऐसे में बच्चा पैरेंट्स के प्रेशर के कारण भी खुद को व्यक्त नहीं कर पाता है।
  • डॉक्टर दीप्ति भी माता-पिता के प्रेशर को ही कारण मानती हैं। वे कहती हैं कि बच्चों को नहीं मालूम होता है कि कितना प्रेशर और कितना फैलियर ठीक है।  

कैसे होती है डिप्रेशन की शुरुआत?
डॉक्टर दीप्ति के मुताबिक, डिप्रेशन के दौरान व्यक्ति की सोच में दो तरह के बदलाव आते हैं। एक तरफ मानसिक तौर पर बुरा या दुखी महसूस होता है, तो दूसरी ओर शारीरिक तौर पर हम काफी स्लो हो जाते हैं।

  • हेल्पलेसनेस (लाचार): इसमें व्यक्ति खुद को बहुत कमजोर महसूस करता है और उसे लगता है कि वो कुछ भी नहीं कर सकता है। इसके अलावा उनके पास खुद को व्यक्त करने के भी आइडिया नहीं होते हैं।.
  • होपलेस (निराशा): डिप्रेशन से जूझ रहे लोग अपने भविष्य को लेकर काफी निराशा से घिर जाते हैं। काफी वक्त से उनके जीवन में कुछ अच्छा नहीं हुआ तो उन्हें लगने लगता है कि आगे का वक्त भी बुरा ही होगा और यह सब ऐसे ही चलेगा।

लोग क्यों नहीं करते ऐसे व्यक्ति की मदद?

  • दीप्ति कहती हैं कि हमारी सोसाइटी में पॉजिटिव होने की लहर चल गई है। ऐसे में जब कोई अपनी परेशानी किसी के पास लेकर जाता है तो सुनने से पहले ही लोग उसे सलाह देने लगते हैं और पॉजिटिव रहने के लिए कहते हैं। 
  • उन्होंने बताया कि ऐसे में शख्स कनेक्टेड फील नहीं कर पाता है। उसे लगता है कि कोई भी मुझे समझता नहीं है। उन्हें लगता है कि सामने वाला मेरे बारे में जो भी सोच रहा है, वैसा मैं नहीं कर पा रहा हूं, हो सकता है कि मुझमें ही कोई कमी होगी।

नई सोच बनाने के लिए प्रोत्साहित करें

  • डॉक्टर दीप्ति के अनुसार, मरीज को बेवजह सलाह न दें, उनके साथ रहें और उन्हें बताएं कि हम आपके साथ हैं। उनकी हालत को लेकर चर्चा करें। अपनी सलाह देने के बजाए उनसे पूछें। उन्हें अपनी सोच बनाने के लिए प्रोत्साहित करें। थोड़ी देर के बाद जब व्यक्ति आपके साथ कनेक्ट होने लगे, तब उन्हें सलाह दें।

बचपन का असर वयस्क होने पर नजर आता है

  • डॉक्टर शिखा कहती हैं कि बचपन का ट्रॉमा बड़े होने पर सामने आता है। जिन बच्चों ने बचपन में ही तनाव झेला है तो वे व्यस्क डिप्रेशन का शिकार हो सकते हैं। उन्होंने बताया कि मशहूर साइकोलॉजिस्ट फ्रायड ने भी अपनी स्टडी में बचपन के ट्रॉमा पर जोर दिया है, अगर आपका चाइल्डहुड ट्रॉमेटिक है तो फ्यूचर ट्रॉमेटिक होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं।  

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