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सेना का वह अफसर जिसने बिना प्रधानमंत्री की परमिशन के 1967 में चीनी सैनिकों पर बरसा दिए थे तोप के गोले

  • 1967 में चार दिनों तक नाथू ला में चली जंग में 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था
  • इस लड़ाई के बाद भारतीय सेना में चीन के 1962 के युद्ध का खौफ पूरी तरह से निकल गया था

दैनिक भास्कर

Jun 17, 2020, 04:49 PM IST

जोधपुर. लद्दाख की गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच सोमवार को हुए खूनी संघर्ष ने 1967 में नाथू ला में हुई जंग की याद ताजा कर दी। उस दौरान सिक्किम के पास नाथू ला में तैनात जनरल सगत सिंह राठौड़ ने सीमा पर पैदा हुए हालात के मुताबिक फैसला लेकर चीनी सेना को जोरदार सबक सिखाया था। दिल्ली से आदेश मिलने का इंतजार करने के बजाय जनरल ने अपनी तोपों का मुंह खुलवा दिया। तीन दिन चली जबर्दस्त लड़ाई में चीन के 300 से ज्यादा सैनिक हताहत हुए। इस लड़ाई के बाद भारतीय सेना में चीन के 1962 के युद्ध का खौफ पूरी तरह से निकल गया था। 

1967 की लड़ाई के बाद नाथू ला में जनरल मानेक शॉ के बाईं तरफ खड़े जनरल सगत सिंह। 

मेजर जनरल वीके सिंह ने अपनी किताब ‘लीडरशिप इन द इंडियन आर्मी’ में उस लड़ाई का विस्तार से जिक्र किया है। इसमें उन्होंने लिखा है कि चीन ने भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया था कि वो सिक्किम की सीमा पर नाथू ला और जेलेप ला की सीमा चौकियों को खाली कर दे। तब सेना के कोर मुख्यालय के प्रमुख जनरल बेवूर ने जनरल सगत सिंह को आदेश दिया था कि आप इन चौकियों को खाली कर दीजिए, लेकिन जनरल सगत इसके लिए तैयार नहीं हुए।

नाथू ला ऊंचाई पर है और वहां से चीनी क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर रखी जा सकती है। जनरल सगत ने नाथू ला खाली करने से इनकार कर दिया था। लेकिन, दूसरी तरफ 27 माउंटेन डिवीजन, जिसके अधिकार में जेलेप ला आता था, वो चौकी खाली कर दी। चीन के सैनिकों ने फौरन आगे बढ़कर उस पर कब्जा भी कर लिया। ये चौकी आज तक चीन के नियंत्रण में हैं।

1967 में इस तरह ट्रकों को दुर्गम रास्तों पर आगे ले गए थे भारतीय सैनिक। 

उस दौरान नाथू ला में तैनात मेजर जनरल शेरू थपलियाल ने ‘इंडियन डिफ़ेस रिव्यू’ के 22 सितंबर 2014 के अंक में लिखा है कि नाथू ला में दोनों सेनाओं का दिन कथित सीमा पर गश्त के साथ शुरू होता था। इस दौरान दोनों देशों के फौजियों के बीच कुछ न कुछ तकरार हो जाती थी। दोनों तरफ के सैनिक एक दूसरे से मात्र एक मीटर की दूरी पर खड़े रहते थे। वहां पर एक नेहरू स्टोन हुआ करता था। ये वही जगह थी, जहां से होकर जवाहर लाल नेहरू 1958 में भूटान में दाखिल हुए थे।

1967 में नाथू ला सेक्टर में चीनी सैनिक।

तार की बाड़ लगाने का फैसला

थोड़े दिनों बाद भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच हो रही कहासुनी धक्का-मुक्की में बदल गई। इलाके में तनाव कम करने के लिए भारतीय अधिकारियों ने तय किया कि वे नाथू ला से सेबू ला तक भारत-चीन सीमा पर तार की एक बाड़ लगाएंगे। 11 सितंबर 1967 की सुबह जवानों ने बाड़ लगानी शुरू कर दी। जैसे ही काम शुरू हुआ चीन ने इसका विरोध किया और कहा कि वो तार बिछाना बंद कर दें। लेकिन भारतीय सैनिकों को आदेश थे कि चीन के ऐसे किसी अनुरोध को स्वीकार न किया जाए। 

नाथू ला सेक्टर में नेहरू स्टोन। यहीं से होकर पंडित नेहरू ने 1958 में भूटान में प्रवेश किया था। 

पिछले साल जुलाई में जोधपुर के सैन्य क्षेत्र में जनरल सगत सिंह की प्रतिमा का अनावरण हुआ था। इस कार्यक्रम में उनकी जीवनी के लेखक पूर्व मेजर जनरल रंधीर सिंह भी पहुंचे थे। उन्होंने बताया था कि लेफ्टिनेंट कर्नल राय सिंह को जनरल सगत सिंह ने आगाह किया था कि वो बंकर में ही रहकर तार लगवाने पर निगरानी रखें, लेकिन वो खुले में ही खड़े होकर सैनिकों का मनोबल बढ़ा रहे थे।

अचानक एक सीटी बजी और चीनियों ने भारतीय सैनिकों पर ऑटोमेटिक फायर शुरू कर दिया। राय सिंह को तीन गोलियां लगीं। मिनटों में ही जितने भी भारतीय सैनिक खुले में खड़े थे या काम कर रहे थे, शहीद हो गए। फायरिंग इतनी जबर्दस्त थी कि भारतीयों को अपने घायलों तक को उठाने का मौका नहीं मिला। हताहतों की संख्या इसलिए भी अधिक थी क्योंकि भारत के सभी सैनिक बाहर थे और वहां आड़ लेने के लिए कोई जगह नहीं थी। 

जब सगत सिंह ने देखा कि चीनी फायरिंग कर रहे हैं। उस समय तोप की फायरिंग का हुक्म देने का अधिकार सिर्फ प्रधानमंत्री के पास था। यहां तक कि सेनाध्यक्ष को भी ये फैसला लेने का अधिकार नहीं था। लेकिन जब ऊपर से कोई हुक्म नहीं आया और चीनी दबाव बढ़ने लगा तो जनरल सगत सिंह ने तोपों से फायर खुलवा दिया। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई जो तीन दिन तक चली।

जनरल सगत सिंह ने नीचे से मध्यम दूरी की तोपें मंगवाईं और चीनी ठिकानों पर गोलाबारी शुरू कर दी। भारतीय सैनिक ऊंचाई पर थे और उन्हें चीनी ठिकाने साफ नजर आ रहे थे, इसलिए उनके गोले निशाने पर गिर रहे थे। जवाब में चीनी भी फायर कर रहे थे। उनकी फायरिंग अंधाधुंध थी, क्योंकि वे नीचे से भारतीय सैनिकों को नहीं देख पा रहे थे। इससे चीन को बहुत नुकसान हुआ और उनके 300 से ज्यादा सैनिक मारे गए।

11 सितंबर, 1967 को यह लड़ाई थमी। जनरल वीके सिंह ने भी इस बारे में अपनी किताब में लिखा है कि 1962 की लड़ाई के बाद भारतीय सेना के जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी वो हमेशा के लिए जाती रही। भारत के जवानों को पता लग गया कि वो भी चीनियों को मार सकता है। 

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