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भारत, पाकिस्तान और चीन के सपनों के खयाली पुलाव, बड़ी शक्तियों के लिए चीन नया सिरदर्द बन गया है

दैनिक भास्कर

Jul 07, 2020, 06:17 AM IST

शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के विस्तारवादी मंसूबों को सारी दुनिया समझ चुकी है। यह बड़ी शक्तियों के लिए नया सिरदर्द बन गया है और उसके अधिकतर हम जैसे पड़ोसियों (उसके ग्राहकों/ताबेदारों को छोड़कर) के लिए यह कष्टकारी बन चुका है। भारत की तरह चीन भी सभ्यताओं को जन्म देने वाला राष्ट्र है जिसके साथ गौरवशाली अतीत की स्मृतियां जुड़ी हैं। भारत मौर्य या गुप्त काल के स्वर्णयुग वाले ‘अखंड भारत’ की चाहत रख सकता है।

चीन क्विंग वंश के युग वाली अपनी सीमाओं को हासिल करने की आकांक्षा रख सकता है। हम सुविधा के लिए इसे उसका ‘अखंड चीन’ का सपना कह सकते हैं। दोनों में अंतर यह है कि लोकतांत्रिक देश भारत में जहां सत्ताधारी बदलते रहते हैं, यह ‘अखंडता’ केवल एक राजनीतिक दल के संस्थापकों की विचारधारा का हिस्सा है। चीन में यह हमेशा के लिए सत्ता में बैठी एकमात्र पार्टी का सपना है। यह सब हकीकत से कितना कटा हुआ और खतरनाक है! खासकर इसलिए कि यह दुनिया के पहले डिप्टी सुपर पावर का मामला है, जिसकी कमान एक निरंकुश सत्ता के हाथों में है।

लद्दाख तो उसके लिए एक छोटा-सा मसला है, बड़ा मसला तो 83,000 वर्ग किमी वाला अरुणाचल प्रदेश है। क्या वह सोच रहा है कि इनमें से किसी को वह जबरन कब्जे में ले सकता है? 21वीं सदी में ऐसी बातें सोचने का मतलब है कि आपको दिमाग के इलाज की जरूरत है। लेकिन राष्ट्रवाद के आकर्षण से बचना बहुत मुश्किल होता है, खासकर तब जब इसे उस विचारधारा से उकसावा मिल रहा हो जिसे राजनीतिशास्त्री ‘पुनःसंयोजनवाद’ कहते हैं, जिसका मूल आधार यह होता है कि इतिहास के किसी विशेष काल में आपके राष्ट्र के जो भी हिस्से थे उन्हें वापस हासिल किया जाए। विस्तारवाद से बचने की सलाह पाकिस्तान के लिए भी उतनी ही माकूल हो सकती है। वह मुल्क सात दशकों के इसी यकीन पर जीता रहा है कि वह जम्मू-कश्मीर को पूरा हासिल कर लेगा। इस चक्कर में वह दरिद्र देश बन गया जिसे 30 साल में 13 बार आईएमएफ ने उबारा।

विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया में लगभग एक ही समय दो देश ऐसे उभरे, जो विचारधारा में जकड़े थे। ये थे इज़रायल और पाकिस्तान। इज़रायल तो दुरुस्त हाल में है लेकिन इसकी तुलना पाकिस्तान से कीजिए! आज पाकिस्तान हर तरह से चीन के डैनों के नीचे दुबक चुका है और जल्दी ही आर्थिक रूप से उसका उपनिवेश बनने के रास्ते पर है। बांग्लादेश ने उसे हरेक सामाजिक संकेतकों के मामले में पीछे छोड़ दिया है क्योंकि पश्चिम पाकिस्तान से आज़ाद होते ही उसका पूर्वी भाग कश्मीर को लेकर पागलपन से भी मुक्त हो गया।

अब हम अपने देश पर आते हैं। हम दार्शनिक, वैचारिक और संवैधानिक रूप से न केवल अपनी उन सीमाओं की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, जो हकीकत में मौजूद हैं बल्कि उन हिस्सों को भी हासिल करने को प्रतिबद्ध हैं जो हमारे नक्शों में हमारे बताए गए हैं। आज़ादी के बाद 70 साल में क्या हम उस हिस्से का एक वर्ग इंच भी हासिल कर पाए हैं? 1965 और 1971 में हमने जिन इलाकों को जीता उन्हें वापस करना पड़ा क्योंकि भविष्य में भी यही करना पड़ता। भारतीय संसद चीन या पाक के कब्जे वाले उन हिस्सों का हरेक इंच वापस हासिल करने के दो प्रस्ताव पारित कर चुकी है, जो नक्शों में हमारे दिखाए गए हैं।

चीन जो दावे करता रहा है उसके मुताबिक क्या वह अरुणाचल प्रदेश या ‘सिर्फ तवांग जिले’ पर कब्जा कर सकता है? क्या पाकिस्तान कभी श्रीनगर के राजभवन पर अपना झंडा फहराता देख सकेगा? क्या भारत अक्साई चीन, मुजफ्फराबाद, गिलगिट-बाल्तिस्तान वापस ले पाएगा? इनमें से कुछ असंभव नहीं है लेकिन परमाणु शक्ति से लैस ये बड़े और ताकतवर देश इतने बड़े आकार में अपनी ज़मीन तभी गंवाएंगे जब वे पूरी तरह से तबाह होंगे। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि ये देश इस तरह तबाह हो सकते हैं? वह भी दूसरे को तबाह किए बिना?

यही वजह है कि ये देश जो सपने देखते हैं वे खयाली पुलाव ही हैं। इस बारे में मैं इससे ज्यादा कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सकता, खासकर तब जबकि मैं पूर्व नौसेना अध्यक्ष और एडमिरल अरुण प्रकाश (वीरचक्र, 1971) के ज्ञान का सहारा ले सकता हूं। हाल में उन्होंने ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ में यह लिखकर सावधान किया कि ‘एक राष्ट्र के रूप में हमारे अंदर यह समझने का विवेक होना चाहिए कि आज 21वीं सदी में न तो किसी के भूभाग को युद्ध से जीत सकते हैं और न दोबारा हासिल कर सकते हैं।’ उन्होंने लिखा है कि संसद अब सरकार से यह मांग करे कि सरकार ‘पूरी गंभीरता से राष्ट्रीय सीमाओं पर शांति, स्थिरता और सुरक्षा बहाल करे ताकि भारत राष्ट्र निर्माण और सामाजिक-आर्थिक विकास के महत्वपूर्ण कामों को निर्बाध रूप से आगे बढ़ा सके।’

‘पुनःसंयोजनवाद’ 19वीं सदी के इटली में उभरा था। इसके बाद लगभग पूरी 20वीं सदी का विश्व इतिहास यही बताता है कि जिस किसी ने इस विचार को अपनाया उसे नुकसान ही हुआ। वक़्त आ गया है कि हिमालय के साये में बसे तीनों पड़ोसी देश इस पर गहराई से सोच-विचार करें।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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