भारत को पिछले एक साल में प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, बेमौसम बरसात, बाढ़ और तूफ़ान की वजह से 87 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ है.
ये आँकड़ा वर्ल्ड मीटियोरोलॉजिकल ऑर्गनाइज़ेशन ने जारी किया है. इस मामले में भारत से आगे केवल चीन है जिसका पिछले एक साल का नुक़सान 238 अरब डॉलर का है. जानकार इस नुक़सान को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखते हैं.
यही वजह है कि भारत समेत दुनिया के तक़रीबन 120 देश ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जुट रहे हैं ताकि जलवायु परिवर्तन और उससे होने वाले ख़तरे से निपटने पर दुनिया एक साथ मिल-बैठकर क़दम उठा सके.
दिल्ली, उत्तराखंड से लेकर केरल तक, गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल और असम तक के लोगों ने बदलते तापमान की वजह से होने वाले इन बदलावों को काफ़ी क़रीब से महसूस किया है.इन्हीं बदलावों के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ग्लासगो दौरा अहम हो जाता है जहाँ दुनिया के तमाम बड़े देश दुनिया के बदलते तापमान को लेकर चर्चा करने वाले हैं.
ग्लासगो में क्या होगा?
ग्लासगो में COP26 सम्मेलन 31 अक्टूबर से होने वाला है. 13 दिन तक चलने वाले इस सम्मेलन को COP सम्मेलन कहा जाता है, जिसका मतलब – ‘कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़’ है.
इस बार इस सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन आने वाले हैं. भारत की तरफ़ से पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव तो रहेंगे ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें हिस्सा लेने वाले हैं.
इस वजह से भारत के संदर्भ में ये सम्मेलन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है.
ग्लासगो का एजेंडा वैसे तो बहुत बड़ा है, लेकिन उनमें से सबसे अहम और महत्वपूर्ण है पेरिस समझौते के नियमों को अंतिम रूप देना.
साल 2015 में क्लामेट चेंज को लेकर पेरिस समझौते हुआ था. इसका मक़सद कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनियाभर में बढ़ रहे तापमान को रोकना था ताकि ये 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा ना बढ़ने पाए. इसके बाद दुनिया के देशों ने स्वेच्छा से अपने लिए लक्ष्य तय किए थे.
संयुक्त राष्ट्र के ताज़ा अनुमान के मुताबिक, वर्तमान में अलग-अलग देशों ने जो लक्ष्य तय किए हैं, उससे दुनिया का तापमान इस सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा.
इसलिए जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से निपटना और ज्यादा ज़रूरी हो जाता है.
ग्लासगो में इसी बात पर चर्चा होगी कि इस बार 2 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान पर वादा करने से बात नहीं बनेगी. दुनिया के सभी देशों को मिलकर इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा ना बढ़ने देने का संकल्प करना होगा.
कोयले पर निर्भरता ख़त्म करना
ग्लासगो सम्मेलन में इस बात पर भी चर्चा होगी कि अब तक दुनिया में जहाँ-जहाँ कोयले से बिजली उत्पादन हो रहा है, उस पर निर्भरता कैसे ख़त्म की जाए.
कोयले के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन सबसे ज़्यादा होता है. लेकिन आर्थिक विकास के लिए उसकी ज़रूरत को नज़रअंदाज भी नहीं की किया जा सकता. चीन, भारत और अमेरिका इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. इन तीनों देशों ने कोयले पर निर्भरता ख़त्म करने की कोई डेडलाइन नहीं दी है.
जलवायु परिवर्तन पर बनी संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी समिति (आईपीसीसी) का कहना है कि दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए ज़रूरी है कि 2050 तक दुनिया की कोयले पर निर्भरता पूरी तरह ख़त्म हो जाए.
कुछ जानकार मानते हैं कि इस पर चर्चा के दौरान विकसित देश बनाम विकासशील देश की लड़ाई आगे भी बढ़ सकती है. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे प्राकृतिक गैस पर निर्भर देश विकासशील देशों पर कोयले पर निर्भरता ख़त्म करने के लिए दबाव बढ़ा रहे हैं जिसके लिए विकासशील देशों को आर्थिक मदद की ज़रूरत होगी.
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पैसा कहाँ से आएगा?
इसी आर्थिक मदद की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए पेरिस समझौते के अंतर्गत विकासशील देशों के लिए, विकसित देशों को जलवायु वित्तीय सहायता के तहत 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष देना भी तय किया गया था.
इस वादे को विकसित देश पूरा नहीं कर पाए हैं.
विकासशील देश चाहते हैं कि जलवायु कोष के लिए 100 अरब डॉलर का जो वादा पेरिस में किया था, उसे वो ना सिर्फ़ पूरा करें, बल्कि आगे के लिए इस रक़म में इज़ाफ़ा भी करें. इस पर भी COP26 में चर्चा होगी.
भारत के जाने-माने पर्यावरणविद् और आईफ़ॉरेस्ट के सीईओ चंद्र भूषण का कहना है, “ग्लासगो का एजेंडा बहुत बड़ा है. मेरे हिसाब से कोर एजेंडा यही होना चाहिए कि पेरिस समझौते के रूल बुक को पूरा किया जाए. इसके साथ ही विकसित और विकासशील देशों के बीच जो भरोसा टूटा है वो एक बार फिर से बहाल हो सके.”
हानि और क्षति
सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की निदेशक सुनीता नारायण के मुताबिक़, “ग्लासगो में एक अहम एजेंडा भारत के लिहाज़ से हानि और क्षति का भी है. पेरिस समझौते में इस पर बहुत ठोस कुछ नहीं कहा गया था.
1970 से 2019 के बीच जलवायु परिवर्तन से जुड़ी 11 हज़ार प्राकृतिक आपदाएं दर्ज की गई थीं जिसमें 20 लाख से अधिक जानें गईं. इसलिए ग्लासगो में किसी समझौते पर पहुँचने के लिए ‘हानि और क्षति’ को मुआवज़े से जोड़ने की ज़रूरत है.”
उन्होंने आगे कहा कि इसलिए जो देश ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं उनके बारे में खुल कर बोलने की ज़रूरत है. इस संदर्भ में उन्होंने खुल कर चीन का नाम भी लिया.
ग्लासगो में भारत क्या कर सकता है?
ग्लासगो में जानकारों को उम्मीद है कि भारत अपने लक्ष्यों को संशोधित करने का एलान कर सकता है. इससे पहले भारत सरकार ने ‘नेट-ज़ीरो’ पर बहुत भरोसा नहीं जताया है.
चंद्र भूषण का कहना है, “भारत को इस सम्मेलन में एक लीडर के तौर पर जाना चाहिए, फ़ॉलोअर की तरह नहीं.”
“नेट ज़ीरो इमिशन का टारगेट भारत के फ़ायदे में है. भारत 2050 से 2060 के बीच यह हासिल कर सकता है. अगर दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा नहीं बढ़ेगा तो सबसे ज़्यादा फ़ायदे में भारत ही होगा.
जल्द ही भारत की जनसंख्या 150 करोड़ होने वाली है. उसी अनुपात में ग़रीबों की संख्या भी बढ़ेगी, जो पहले से ही यहाँ ज़्यादा हैं. ग़रीबी का सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है. ग़रीबों के पास रहने को पक्के मकान नहीं होते तो जलवायु परिवर्तन उन्हीं को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है.
इससे देश की जीडीपी भी फिर प्रभावित होती है. भारत में मॉनसून पर निर्भरता भी बहुत ज़्यादा है.”
सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण कहती हैं, “नेट ज़ीरो पर भारत सरकार क्या कहती है, इसके लिए हमें कुछ और वक़्त इंतज़ार करना होगा. लेकिन मेरा मानना है कि भारत सरकार कहेगी कि हमें ‘नेट ज़ीरो’ के पहले साल 2030 की तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है.”