नवीं क्लास में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने पिछले दिनों अपनी पुरानी क्लास टीचर को एक नोट लिखा जिसमें उसने अपनी पिछली क्लास के लड़कों के आए दिन किए गए रेप जोक्स पर एतराज़ दर्ज किया और बताया कि इससे क्लास की लड़कियां कितना असहज महसूस करती थीं.
वो साल भर पहले अपने साथ की लड़कियों और अपने ऊपर कसी जा रही गंदी फ़ब्तियों पर कुछ बोल पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी. एक साल बाद किसी संदर्भ में उसे वो सबकुछ दोबारा याद आ रहा था. लड़कों का एक समूह क्लास की लड़कियों के शरीर पर, उनकी योनि पर उनके शरीर के अलग-अलग हिस्सों पर मज़ाक करते या बलात्कार जैसी हिंसक बात को मामूली बना देते. रेप जोक्स करना एक आम हंसी मज़ाक का विषय था.
एक साल बाद भी वे बातें उसके ज़हन में ताज़ा थीं और विरोध नहीं कर पाने की छटपटाहट ज़्यादा.
लिखने से पहले उसने मुझसे ज़रूर पूछा कि क्या एक साल बाद ये शिकायत करना उचित होगा. ज़ाहिर है उसे ये लगा कि एक लंबे अंतराल के बाद ऐसी शिकायतों को सामने लाना लोगों को ग़लत लग सकता है.
पर अच्छा हुआ कि उसने ख़ुद ही फ़ैसला लिया कि जब हिम्मत बंधे और समय सही लगे बोलना ज़रूर चाहिए. एक साल बाद ही सही वो अपने लिए और अपने दोस्तों के लिए खड़ी हो सकी.
आख़िर क्यों कई बार समय की सीमा हमारे विरोध को दर्ज करने के फ़ैसले पर सवालिया निशान उठाती है. अगर पहली बार नहीं विरोध किया तो बाद में क्यों भला?
इस मानसिकता की वजह को तलाशना मुश्किल नहीं है. तब और भी नहीं जब इस देश के आम ही नहीं ख़ास भी लड़कियों को ये समझाने की कोशिश करते हैं कि दरअसल ये बातें मज़ाक हैं, लड़कियां ज़्यादा तरजीह दे रही हैं या फिर लड़के बोलते हुए कैरिड ओवर हो जाते हैं या ऐसे कॉमेंट इग्नोर कर देना चाहिए.