जन्म में राम, मरण में राम. वाह में राम, आह में राम. उत्साह में राम, स्याह में राम.
साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार, तुलसीदास ने अयोध्या में रामनवमी के दिन साल 1574 से रामचरितमानस लिखने की शुरुआत की थी.
तुलसी की रामचरितमानस की पांडुलिपि नष्ट करने की भी कोशिश की गई थी.
भारत के पूर्व राजनयिक और भारतीय समाज के साथ संस्कृति पर गहरी नज़र रखने वाले पवन कुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेटेस्ट ओड टु लॉर्ड राम: तुलसीदास रामचरित मानस’ में लिखा है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस की पांडुलिपि की एक कॉपी अकबर के दरबार में नौरत्नों में से एक और वित्त मंत्री टोडरमल को दे दी थी ताकि सुरक्षित रहे.
काशी के पंडे इस बात से नाराज़ थे कि तुलसीदास राम को देवभाषा संस्कृत से अलग क्यों कर रहे हैं. तुलसीदास का जीवन सफ़र एक अनाथ और आम रामबोला से गोस्वामी तुलसीदास बनने का है.तुलसीदास की जीवनी पर ‘मानस का हंस’ उपन्यास लिखने वाले अमृतलाल नागर ने लिखा है, ”जनश्रुतियों के अनुसार, तुलसीदास अपनी बीवी से ऐसे चिपके हुए थे कि उन्हें मैके तक नहीं जाने देते थे. ‘तन तरफत तुव मिलन बिन’ दोहे के बारे में कहा जाता है कि तुलसी ने अपनी पत्नी के लिए लिखा था. मुझे लगता है कि तुलसी ने काम ही से जूझ-जूझ कर राम बनाया है. ‘मृगनयनि के नयन सर को अस लागि न जाहि’ उक्ति भी गवाही देती है कि नौजवानी में वह किसी तीरे-नीमकश से बिंधे होंगे. नासमझ जवानी में काशी निवासी विद्यार्थी तुलसी का किसी ऐसे दौर से गुज़रना अनहोनी बात भी नहीं है.”
महाकाव्य रामचरितमानस
रामचरितमानस रामायण का छोटा संस्करण है, लेकिन गोस्वामी तुलसीदास ने जिस शैली में लिखी थी, वह लोकप्रियता में मूल रामायण पर भारी पड़ गई.
रामचरितमानस को आकार में छोटा होने के बावजूद महाकाव्य का दर्जा हासिल है.
रामचरितमानस में 12,800 पंक्तियाँ हैं, जो 1,073 दोहों और सात कांड में विभाजित हैं.
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस गेय शैली में है. रामचरितमानस की चौपाइयों में हिन्दू धर्म दर्शन की गूढ़ता है, सगुण और निर्गुण भक्ति के बीच का विभाजन है और राम के प्रति भक्ति में समर्पण है.
रामचरितमानस को एक महान साहित्यिक रचना का दर्जा हासिल है, लेकिन उत्तर भारत में हिन्दुओं के बीच धर्म ग्रंथ की भी प्रतिष्ठा हासिल है.
पवन वर्मा ने लिखा है कि रामचरितमानस उत्तर भारत के हिन्दुओं के लिए बाइबिल की तरह है.
पवन वर्मा इसके साथ यह भी कहते हैं कि रामचरितमानस दुनिया की महान साहित्यिक रचानाओं में से एक है.
वर्मा ने अपनी किताब में लिखा है, ”रामचरितमानस में न केवल तुलसीदास की शानदार कविताई है, बल्कि गहरे दर्शन, सहज ज्ञान और इन सबके ऊपर महान भक्ति भाव है.”
तुलसीदास की कुछ चौपाइयों का हवाला देकर उन्हें और रामचरितमानस को दलित और स्त्री विरोधी बताया जाता है. तुलसीदास को दलित और स्त्री विरोधी बताने के लिए आए दिन इस चौपाई का उल्लेख किया जाता है-
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”प्रसंग से काटकर इस दोहे को दलित और स्त्री विरोधी बताने के लिए इस रूप में पेश किया जाता है मानो तुलसीदास ने दलितों के बारे में ख़ुद ही कहा है. यह वैसा ही है कि मैं अपने गुरु को कहूँ कि आपके चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ और मेरी जाति देख गुरु पर तोहमत लगाना शुरू कर दिया जाए कि वह दलितों को पैरों की धूल के बराबर भी नहीं समझते हैं.”
हिन्दी साहित्य के जाने-माने आलोचक दिवंगत प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ने भी अपने एक व्याख्यान में गरुड़ और काकभुशुण्डि संवाद का ज़िक्र किया था.
नामवर सिंह ने कहा था, ”गरुड़ और काकभुशुण्डि संवाद के रूप में तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति में क्या महत्वपूर्ण है और दोनों में क्या संबंध है, उसे बताया है. भक्ति क्यों ज्ञान से श्रेष्ठ है, ये दिखाने के लिए गरुड़ और काकभुशुण्डि को चुना और दोनों को अंत में जो दिखाते हैं, वह अहम है. आजकल लोग दलित की बात बहुत करते हैं, उन्हें बता रहा हूँ.”
”गरुड़ देवताओं के वाहन थे. देवतुल्य थे. काकभुशुण्डि कौवा हैं. कहाँ कौवा और कहाँ गरुड़. लेकिन तुलसीदास ने काकभुशुण्डि को श्रेष्ठ दिखाया क्योंकि वो भक्त थे. भले काकभुशुण्डि पक्षियों में क्षुद्र थे. काकभुशुण्डि जीतते हैं और गरुड़ हारते हैं. ज्ञान बनाम भक्ति का तर्क देखना है तो काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद से बेहतर कुछ नहीं हो सकता.”
तुलसीदास और रामचरितमानस को घेरने के लिए सबसे ज़्यादा, ढोल, ‘गंवार शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ पंक्ति का हवाला दिया जाता है.इसका इस्तेमाल तो लोग गाँवों में स्त्रियों और दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए भी करते हैं. इस पंक्ति का लोग अपने-अपने हिसाब से स्वतंत्र रूप में इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कोई भी संदर्भ नहीं बताता है.
रामचरितमानस में इस दोहे का संदर्भ बताते हुए अखिलेश शांडिल्य कहते हैं, ”राम लंका के रास्ते में हैं. बीच में समंदर पड़ता है. तीन दिनों से समंदर से रास्ता मांगते हैं, लेकिन समंदर सुनता नहीं है. राम नाराज़ हो जाते हैं और लक्ष्मण से अग्निबाण निकालने का आदेश देते हैं. राम समंदर को सुखाने की हद तक नाराज़ हो जाते हैं. राम इसी ग़ुस्से में कहते हैं-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।
अग्निबाण छूटने से पहले ही समंदर राम के सामने प्रकट होता है और कहता है, ‘प्रभु हम तो जड़ हैं. प्रार्थना समझ में नहीं आती है.’ समंदर इसी प्रसंग में राम से कहता है- ‘ढोल, गंवार शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी.’
शांडिल्य कहते हैं, ”यहाँ समंदर अपनी कंडिशनिंग बता रहा है. न तो तुलसीदास कह रहे हैं और न ही राम. किसी साहित्यिक रचना का हर पात्र विवेकशील बात करे यह ज़रूरी नहीं. कोई भी साहित्य अपने समय और समाज के बीच ही पनपता है और उसकी झलक रचना में साफ़ दिखती है. प्रेमचंद का कोई पात्र सामंती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि प्रेमचंद ख़ुद सामंती सोच के हैं और उनकी रचना इस सोच को खाद-पानी दे रही है.’