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पोलैंड वाले आने दे रहे हैं, यूक्रेन वाले जाने नहीं दे रहे’- दो छात्रों की आपबीती

परविंदर और विशाल

रूस ने यूक्रेन में हमले तेज कर दिए हैं. राजधानी कीएव, खारकीएव और अन्य प्रमुख शहरों पर रूसी सेना की ओर बमबारी जारी है. 24 फरवरी को जब रूस का हमला शुरू हुआ उस वक्त लगभग 20 हज़ार भारतीय नागरिक यूक्रेन में मौजूद थे, इनमें से अधिकांश छात्र थे.

रूसी हमले के बाद पोलैंड, रोमानिया जैसे यूक्रेन के पड़ोसी देशों में लाखों लोगों ने पलायन किया है. बॉर्डर पर अभी भी हज़ारों लोग जमा हैं, जो यूक्रेन से दूसरे देशों में जाने की कोशिश कर रहे हैं. इनमें भारी संख्या में भारतीय भी शामिल हैं.

यूक्रेन से निकलने की कोशिश कर रहे भारतीय किसी तरह बॉर्डर के इलाकों तक तो पहुंच जा रहे हैं, लेकिन वहां ठंड और बर्फबारी के बीच उन्हें सीमा पार करने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ रहा है.

जंग के बीच यूक्रेन से निकलने की कोशिश कर रहे भारतीयों के साथ भेदभाव की रिपोर्ट्स भी आई हैं. कई छात्रों ने आरोप लगाया है कि उनके साथ यूक्रेन के सुरक्षाबलों ने अभद्रता की और उन्हें नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा.

परविंदर का कहना है कि वो 6 दिन पहले कीएव से पोलैंड बॉर्डर के लिए चले थे.

परविंदर कहते हैं, ”जिस दिन कीएव पर हमला हुआ था, उसी दिन हम वहां से चले थे. हमें कीएव से चले 6 दिन हो चुके हैं.’

बॉर्डर तक की यात्रा के बारे में पूछे जाने पर परविंदर कहते हैं, ”बॉर्डर तक हालात फिर भी ठीक थे. इतनी ज़्यादा मुश्किल नहीं थी. कीएव से लवीव के लिए ट्रेन मिल गई थी.”

उनके साथ मौजूद विशाल बताते हैं, ”कीएव से निकलने के बाद बॉर्डर तक यात्रा अच्छी थी, लेकिन बॉर्डर पर पहुंचने के बाद मुश्किलें आईं.”

विशाल ने पोलैंड बॉर्डर पर अपने साथ नस्लीय भेदभाव का आरोप लगाया. वो कहते हैं, ”हमारे साथ उन्होंने नस्लीय भेदभाव किया. यूक्रेन के लोगों ने, उनकी सेना ने हमारे साथ काफी बुरा बर्ताव किया. हमें ये भी पता नहीं था कि हम वहां से ज़िंदा निकल पाएंगे भी या नहीं.”

विशाल आगे कहते हैं, ”पोलैंड और अन्य पड़ोसी देश हमें आने दे रहे थे, लेकिन ये लोग (यूक्रेनी) हमें वहां से जाने नहीं दे रहे थे.”

कई दिनों तक नहीं सोए

 

विशाल का कहना है कि वे और उनके साथी परविंदर 6 दिनों तक बॉर्डर पर फंसे रहे, उन्होंने यूक्रेनी सेना पर मारपीट करने का भी आरोप लगाया.

उन्होंने कहा, ”हमला होने के बाद हमें कीएव से निकलने में समय नहीं लगा, लेकिन बॉर्डर पर हम 6 दिनों तक फंसे रहे. हमें चोटें आईं, हमारे पांव गल गए, लेकिन हम निकल ही नहीं पा रहे थे. सेना हमें डंडे मार रही थी. हम लगातार बिना खाये-पीये लाइनों में लगे रहे.”

वहीं परविंदर का कहना है कि बॉर्डर पार करने में हो रही भारी परेशानी और तनाव की वज़ह से कई लोगों का मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया है.

अपने साथ हुआ एक वाकया सुनाते हैं, ”मुझे कई लोग ऐसे मिले हैं जिनका मानसिक संतुलन हिल गया है. मैं पानी लेने के लिए दुकान पर जा रहा था तो वहां पर मुझे एक लड़का मिला, वो मुझे किसी और नाम से पुकारकर कहने लगा कि तुम आ गए, तुम तो पोलैंड चले गए थे. तुम मुझे लेने आए हो. आओ चलते हैं.”

परविंदर ने आगे बताया, ”उस लड़के से जब मैंने पूछा कि तुम कौन हो? तो उसने कहा कि तुम मुझे नहीं जानते? हम तो साथ पढ़ते थे.”

परविंदर का कहना है कि वह लड़का कई दिनों से सोया नहीं था, इसलिए उसकी ऐसा हालत हो गई थी.

बकौल परविंदर, वो भी लगातार 4 दिन तक सोए नहीं थे. इस वजह से उन्हें भी कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ा. उनका कहना है कि बॉर्डर पार करते वक्त उन्हें 2-3 लोग मिले, जिनकी मानसिक हालत खराब हो चुकी थी.

सीमा पार करने के लिए लग रहे दो से ढाई दिन

विशाल के अनुसार यूक्रेनी सेना बॉर्डर पर निकलने में सबसे पहले यूक्रेन के लोगों को प्राथमिकता दे रही है, दूसरे देशों के लोगों को बॉर्डर पार करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है.

वो कहते हैं, ”चाहे किसी देश के भी लोग हों, उन्हें धक्के मारे जा रहे हैं, डंडे मारे जा रहे हैं. हमें बॉर्डर पार करने के लिए एक दूसरे से लड़ना पड़ता है. स्थानीय लोगों को तमाम सुविधाएं मिल रही हैं, हमें कोई सुविधा नहीं दी जाती.”

परविंदर बताते हैं कि बॉर्डर पार करने की प्रक्रिया में औसतन दो से ढाई दिन लाइन में लगे रहना पड़ता है. इस दौरान अगर कोई लाइन से बाहर निकल गया तो उसे फिर पीछे जाकर दोबारा लाइन में लगना पड़ता है.

बॉर्डर पर लोगों को खाने-पीने और अन्य दिक्कत का ज़िक्र करते हुए परविंदर कहते हैं, ”वहां पर दुकानों में खाने-पीने का सामान खत्म हो चुका है. लोग केवल चॉकलेट और कोल्ड ड्रिंक से काम चला रहे हैं. हमें बर्फ में, बारिश में सोना पड़ता था, जबकि यूक्रेन के लोगों के लिए बसों के इंतज़ाम थे.”

हालांकि परविंदर और विशाल के पास केवल बुरे अनुभव ही नहीं हैं. वे कहते हैं, ”ऐसा नहीं है कि वहां सब लोग बुरे ही हैं. अच्छे भी लोग हैं. कुछ लोग वहां कपड़े छोड़कर जा रहे थे, जिससे कि हमें ठंड ना लगे. स्थानीय लोगों ने हमारी काफ़ी मदद की.”

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