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क्या डूब जाएगा अफगानिस्तान में भारतीय निवेश:तालिबान के बढ़ रहे कब्जे से भारत के 22,000 करोड़ के प्रोजेक्ट दांव पर, कश्मीर में भी जेहादी ग्रुपों के उभरने की आशंका

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  • India’s Investment Of 22000 Crores Is At Stake Due To The Ever increasing Occupation Of Taliban In Afghanistan, There Is A Possibility Of Re emergence Of Jihadi Groups In Kashmir

नई दिल्ली2 घंटे पहलेलेखक: पूनम कौशल

अफगानिस्तान में तालिबान के लगातार बढ़ते कब्जे ने पूरी दुनिया को चिंतित कर रखा है। यहां की सत्ता पर तालिबान का नियंत्रण भारत के लिए भी चिंता की बात है। पिछले 20 साल में भारत ने अफगानिस्तान में करीब 22 हजार करोड़ रुपए का इंवेस्टमेंट किया है। सवाल ये है कि तालिबान के कब्जे के बाद क्या यह निवेश पूरी तरह फंस जाएगा?

काबुल में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक मुश्ताक रहीम कहते हैं, ‘तालिबान और सरकारी सेना के बीच भीषण संघर्ष चल रहा है। अभी तालिबान काबुल से दूर है, लेकिन अगर अफगानिस्तान में शांति समझौता नहीं हुआ तो भारी तबाही की आशंका है। यहां की अर्थव्यवस्था पहले से ही बर्बाद है। भारत ने जो भी निवेश यहां किए हैं, गृह युद्ध की स्थिति में वह भी अधर में फंस जाएंगे।’

पिछला तालिबान शासन खत्म होने के बाद भारत ने शुरू किए थे निवेश

1996 से 2001 के बीच जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था, तब भारत ने अफगानिस्तान से संबंध तोड़ लिए थे, लेकिन अमेरिका के आने के बाद हामिद करजई की सरकार का गठन हुआ तो भारत फिर से काबुल में सक्रिय हो गया था।

अफगानिस्तान भारत की सुरक्षा की दृष्टि से हमेशा बहुत महत्वपूर्ण रहा है। अफगानिस्तान में अस्थिरता बढ़ने पर जिहादी और कट्‌टरपंथी ग्रुप कश्मीर में सक्रिय हो जाते हैं। ऐसे में भारत की रणनीति रही है कि अफगानिस्तान की उस राजनीतिक सत्ता से नजदीकी रखी जाए, जो वहां के कट्‌टरपंथी समूहों को काबू में रख सकें। इसके अलावा ईरान जैसे देशों के साथ व्यापारिक लिहाज से भी अफगानिस्तान भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है।

अफगानिस्तान में अमेरिका के आने के बाद वहां बीते दो दशक में भारत ने भारी निवेश किया है। भारत के विदेश मंत्रालय के मुताबिक अफगानिस्तान में भारत के 400 से अधिक छोटे-बड़े प्रोजेक्ट हैं। अफगानिस्तान में चल रहे भारत के कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स पर नजर डालते हैं। और ये भी देखते हैं कि फिलहाल मौजूदा समय में चल रही लड़ाई का इन पर क्या असर पड़ने वाला है…

1. सलमा डैम: यह अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में 42 मेगावॉट का हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट है। 2016 में इसका उद्घाटन हुआ था और इसे भारत-अफगान मैत्री प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है।

अभी क्या स्थिति है: हेरात प्रांत में पिछले कुछ हफ्तों से भारी लड़ाई चल रही है और तालिबान का दावा है कि डैम के आसपास के इलाकों पर अब उसका कब्जा है। इस तरह की खबरें भी आई हैं कि बांध की सुरक्षा में तैनात कई सुरक्षाकर्मी भी तालिबानियों के हाथों मारे गए हैं।

2.अफगान संसद: अफगानिस्तान में भारत के सबसे प्रमुख प्रोजेक्ट में काबुल में अफगानिस्तान की संसद है। इसके निर्माण में भारत ने लगभग 675 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इसका उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में किया था और भारत-अफगान मैत्री को ऐतिहासिक बताया था। इस संसद में एक ब्लॉक पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर भी है।

अभी क्या स्थिति है: काबुल में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक मुश्ताक रहीम कहते हैं, ‘तालिबान अफगानिस्तान के बाहरी हिस्सों पर तेजी से काबिज हो रहा है, लेकिन अभी उसका काबुल तक आना आसान नहीं दिखता है, लेकिन अगर तालिबान देश के ज्यादातर हिस्सों में कब्जा कर लेता है और काबुल में नाममात्र की सरकार रह जाती है तो वह व्यापार और सुरक्षा जैसे व्यापक भारतीय हितों की सुरक्षा नहीं कर पाएगी। ऐसे में भारत और बाकी देशों ने जिस मकसद से इस तरह के इंवेस्टमेंट किए थे, वे पूरे नहीं होंगे।’

3. हाईवे प्रोजेक्ट्स: भारत बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाइजेशन ने अफगानिस्तान में 218 किलोमीटर लंबा हाईवे भी बनाया है। ईरान के सीमा के पास जारांज से लेकर डेलारम तक जाने वाले इस हाईवे पर 15 करोड़ डॉलर खर्च हुए हैं। यह हाईवे इसलिए भी अहम है क्योंकि ये अफगानिस्तान में भारत को ईरान के रास्ते एक वैकल्पिक मार्ग देता है। इस हाईवे के निर्माण में भारत के 11 लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी। जारांज-डेलारम के अलावा भी कई सड़क निर्माण परियोजाओं में भारत ने निवेश कर रखा है।

अभी क्या स्थिति है: व्यापार के लिहाज से जारांज-डेलाराम प्रोजेक्ट भारत के सबसे महत्वपूर्ण निवेश में से एक है। पाकिस्तान अगर जमीन के रास्ते भारत को व्यापार से रोकता है तो उस स्थिति में यह सड़क बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि इस हाईवे पर तालिबानी नियंत्रण होता है तो यह भारत के लिए एक बड़ा झटका होगा।

ये बड़े प्रोजेक्ट्स हैं जो भारत-अफगान संबंध और सामरिक दृष्टि से महत्वूपूर्ण हैं। इनके अलावा अफगानिस्तान के 34 जिलों में भारत सरकार के 400 से ज्यादा प्रोजेक्ट चल रहे हैं। इनमें हेल्थ, ट्रांसपोर्टेशन और पॉवर इन्फ्रा से जुड़ी परियोजनाएं हैं। काबुल में 1985 में शुरू हुआ इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ चाइल्ड हेल्थ गृह युद्ध में बर्बाद हो गया था। भारत ने इसे भी फिर से बनवाया है। कई इंडो-अफगान कल्चरल प्रोजेक्ट्स में भी भारत का अच्छा-खासा निवेश है।

काबुल में भारत की मदद से तैयार नई अफगान संसद का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ 2015 में किया था। इस अफगान संसद में एक ब्लॉक का नाम भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखा गया है।

काबुल में भारत की मदद से तैयार नई अफगान संसद का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के साथ 2015 में किया था। इस अफगान संसद में एक ब्लॉक का नाम भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखा गया है।

तो फिर भारत के निवेश का क्या होगा?

तो क्या अफगानिस्तान में अब भारत का निवेश डूब जाएगा? इस सवाल पर मुश्ताक रहीम कहते हैं, ‘तालिबान अगर अफगानिस्तान में अपनी सत्ता जमा लेते हैं तो यह भारत के लिए झटका तो होगा ही, लेकिन इस बार तालिबान भी कोशिश कर रहा है कि उसे महज एक कट्‌टरपंथी संगठन मानने के बजाय एक राजनीतिक दल माना जाए। ऐसे में यह देखना होगा कि तालिबान पर कौन सा गुट हावी रहता है।’

मुश्ताक इसके लिए दो बातें बताते हैं। वे कहते हैं, ‘यदि तालिबान के पाकिस्तान की तरफ झुकाव रखने वाले नेता सत्ता में प्रभावी होते हैं तो पक्के तौर पर यह भारत के राजनीतिक और सुरक्षा हितों के लिए खतरा होगा। अगर तालिबान सत्ता हासिल करने के बाद एक परिपक्व राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करते हैं तो भारत सरकार उनसे बातचीत के जरिए कुछ रास्ते तलाश सकती है।’

अफगानिस्तान के मामलों पर नजर रखने वाले विशेषज्ञ कबीर तनरेजा कहते हैं, ‘तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद भारत का निवेश पूरी तरह डूब जाएगा, ऐसा नहीं है। तालिबान सत्ता में आ भी जाता है तब भी उसे जन सुविधाएं तो देनी ही होंगी। इसलिए इस बार तालिबान भारत के निवेश को नष्ट करने की वैसी कोशिश नहीं करेगा, जैसा कि उन्होंने बामयान के बुद्धा को नष्ट किया था, लेकिन तालिबान पर भारत का कोई नियंत्रण नहीं होगा। उदाहरण के तौर पर सलमा बांध जिन शर्तों पर भारत ने बनाया है, उन्हें तालिबान नहीं मानेगा। तालिबान अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर अपना नियंत्रण कर लेगा। वो इसे बर्बाद तो नहीं करेगा, लेकिन चलाएगा अपने हिसाब से ही, उसमें भारत का स्टेक नहीं रह जाएगा।’

अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में 42 मेगावॉट का हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट है, जो भारत के सहयोग से बनाया गया है। 2016 में इसका उद्घाटन हुआ था और इसे भारत-अफगान मैत्री प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है। फिलहाल, ऐसी खबरें हैं कि तालिबान ने डैम के आसपास के इलाकों में कब्जा कर लिया है।

अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में 42 मेगावॉट का हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट है, जो भारत के सहयोग से बनाया गया है। 2016 में इसका उद्घाटन हुआ था और इसे भारत-अफगान मैत्री प्रोजेक्ट के नाम से जाना जाता है। फिलहाल, ऐसी खबरें हैं कि तालिबान ने डैम के आसपास के इलाकों में कब्जा कर लिया है।

क्या तालिबान से बात करने में भारत ने देर कर दी?

चीन, रूस, स्विट्जरलैंड और अमेरिका, सभी देश तालिबान के साथ बात कर रहे थे, लेकिन भारत तालिबान के साथ बातचीत में एंगेज नहीं हुआ। एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारत को शायद ये लग रहा था कि यदि वो तालिबान से बात करता है तो उसे कश्मीर के अलगाववादी समूहों से भी बात करनी होगी।

कश्मीर की नेता महबूबा मुफ्ती ने सवाल भी उठाया था था कि यदि भारत तालिबान से बात कर सकता है तो फिर पाकिस्तान और कश्मीरी समूहों से बात क्यों नहीं करता? कबीर तनरेजा कहते हैं, ‘तालिबान से बातचीत में हिचक के पीछे यही वजह थी।’

हालांकि हाल में आई कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि भारत ने तालिबान के साथ वार्ता शुरू की है, लेकिन एक्सपर्ट का मानना है कि भारत ने तालिबान के साथ बात तब शुरू की है, जब तालिबान मजबूत हो चुका है। आज यदि भारत तालिबान के साथ बैठकर बात करेगा तो तालिबान बराबरी के स्तर पर बैठकर बात करेगा। ऐसे में भारत अपने राजनीतिक और सुरक्षा हितों को सुरक्षित रखने के लिए तालिबान पर कितना दबाव बना पाता है, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है।

तनरेजा कहते हैं, ‘यदि भारत तालिबान से बातचीत नहीं कर रहा है तो ये हैरानी की बात होगी। आधिकारिक तौर पर न तालिबान स्वीकार करेगा और न ही भारत, लेकिन बात तो हो ही रही होगी।’

कश्मीर में बन सकता है आतंक का नया कॉरिडोर

अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए भी चिंता की बात है। अतीत में हमेशा देखा गया है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता बढ़ने पर कश्मीर में जेहादी ग्रुप हावी हो जाते हैं। हालांकि तालिबान ने पिछले साल कहा था कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और तालिबान उसमें कोई दखल नहीं देगा।

एक्सपर्ट कबीर तनरेजा कहते हैं, ‘अफगानिस्तान की समस्या ये है कि वहां तालिबान जैसे 20 से ज्यादा समूह हैं। यदि तालिबान ऐसे समूहों को पनपने देता है तो ये भारत के लिए चिंता का विषय हो सकता है। हो सकता है कि लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों को तालिबान सुरक्षित ठिकाना दे दे। ऐसे में अफगानिस्तान से पाकिस्तान होकर एक मिलिटेंट कॉरिडोर बन सकता है। जो भारत के लिए चिंता की बात होगी।

अफगानिस्तान में कट्‌टरता बढ़ने का असर कश्मीर में देखा गया है। एक्सपर्ट का मानना है कि तालिबान के अफगान सत्ता में आने के बाद भले ही वह सीधे कश्मीर के मामले में दखल न दे, लेकिन तालिबान के शासन में लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के लिए सुरक्षित ठिकाना होगा। इस वजह से कश्मीर में आतंक की घटनाएं बढ़ सकती हैं।

अफगानिस्तान में कट्‌टरता बढ़ने का असर कश्मीर में देखा गया है। एक्सपर्ट का मानना है कि तालिबान के अफगान सत्ता में आने के बाद भले ही वह सीधे कश्मीर के मामले में दखल न दे, लेकिन तालिबान के शासन में लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के लिए सुरक्षित ठिकाना होगा। इस वजह से कश्मीर में आतंक की घटनाएं बढ़ सकती हैं।

क्या भारत फौज के विकल्प का भी इस्तेमाल कर सकता है?

अफगानिस्तान ने कहा है कि हालात ज्यादा गंभीर होने पर अगर जरूरत पड़ी तो भारत से सैन्य मदद मांगेगा। यदि अफगानिस्तान ने अधिकारिक तौर पर भारत से सैन्य मदद मांग ली तो भारत क्या करेगा?

एक्सपर्ट तनरेजा कहते हैं, ‘यदि भारत ने मदद नहीं की तो हो सकता है कि काबुल की सरकार ज्यादा जल्दी गिर जाए, लेकिन यदि मदद की तो भारत पर अफगानिस्तान में दखल के आरोप लग सकते हैं। बहुत संभव है कि भारत ईरान और रूस जैसे सहयोगी देशों के साथ मिलकर तालिबान के खिलाफ काम करे।’

विशेषज्ञ मानते हैं कि फिलहाल हालात बहुत जटिल हैं और भारत सरकार को बहुत सोच-समझकर कदम उठाने होंगे। भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते पुराने हैं। लोगों का भी आपस में संपर्क है। फिलहाल, भारत को हर स्तर पर यह कोशिश करनी चाहिए कि वहां किसी की भी सत्ता रहे,लेकिन ऐसी स्थिति न पैदा हो कि पिछले 20 साल में बने वहां के सभी डेमोक्रेटिक स्ट्रक्चर टूट जाएं।

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