April 25, 2024 : 11:08 AM
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निर्मल मन जन सो मोहि पावा,मोहि कपट छल छिद न भावा। अभिषेक तिवारी

रामचरितमानस की सुंदरकांड की इस चौपाई में तुलसीदास जी भगवान की इच्छा को ही व्यक्त कर रहे है –

निर्मल मन जन सो मोहि पावा,मोहि कपट छल छिद न भावा

निर्मल मन जन सो मोहि पावा,मोहि कपट छल छिद न भावा

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– जिनका मन निर्मल होता है , वही आनंद स्वरूप ईश्वर को पा सकते हैं , क्योंकि परमात्मा को छल कपट आदि दुर्गुणों की गदंगी नहीं भाती. अपने कल्याण की कामना करने वालों को इसीलिए इनसे सदैव दूर ही रहना चाहिए.

यहाँ तीन बातो को स्पष्ट रूप से कहा गया है.”कपट”, “छल” और “छिद्र”.रामायण में तीन पात्र ऐसे है जिनमे ये तीनो दोष देखने में आये है. – 1. कपट – मंथरा ने किया, 2. छल – रावण ने किया, 3. छिद्र – शूर्पनखा में थे.

1. पहला दोष है कपट – कभी भूल कर भी किसी के साथ कपट नहीं करना चाहिए. जैसा कि “मंथरा” ने कैकेयी के साथ किया था. छल, धोखा, झूठ, दिखावा और विश्वासघात आदि ये सब कपट के ही विभिन्न रूप हैं. दूसरों का धन हड़पने वाले , दूसरों की सुख शांति से ईर्ष्या रखने वाले व्यक्ति कपटी हो जाते हैं. वे तरह-तरह के प्रपंच रचते हैं , दांव खेलते हैं और खुद को बुद्धिमान समझते हैं, उन्हें अंतत: उसके परिणाम अवश्य भोगने पड़ते हैं. कपटी व्यक्ति को कभी सुख चैन नहीं मिलता.

कपट करने वाले के लिए ईश्वर के कपाट सदा के लिए बंद हो जाते है,और भगवान उसे ऐसी पटक लगाता है कि फिर व्यक्ति के पास पश्चाताप करके का मौका भी नहीं देता.

2. दूसरा दोष है “छल” – जिसे आजकल बुद्धि बल समझा जाने लगा है. साधु वेष में “रावण” ने भी तो सीता के साथ छल ही किया था. इसके परिणाम में उस महाबली और विद्वान रावण को भी सर्वनाश का फल भोगना पड़ा था. अपने स्वार्थ या अहंकार में किसी के भी साथ कभी छल नहीं करना चाहिए, अन्यथा उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है.

3. तीसरा दोष है छिद्र – छिद्र का अर्थ होता है कमी, दोष, व्यसन यानि बुराइयां.. फिर भी ज्यादातर व्यक्ति दूसरों का छिद्रान्वेषण करने में तो लगे रहते हैं, पर खुद अपनी कमियां ढूंढ़ कर उन्हें दूर करने में रुचि नहीं लेते.

“शूर्पनखा” के सामने राम लक्ष्मण और जानकी जैसी अच्छाईयाँ थी पर उनके सामने ही स्वयं के गुणों का बखान करने लगी.  ये अच्छाईयाँ अत:करण में कैसे प्रवेश करती.परिणाम नाक कान कटवाने पड़े.

इसीलिए विचारकों का कथन है कि अपनी कमियां और दूसरों की अच्छाइयां देखनी चाहिए. यही आत्मोत्थान का मार्ग तथा आत्म विकास का उपाय है. जिस प्रकार से अनेक छिद्रयुक्त होने के कारण छलनी में दूध या जल कुछ भी नहीं ठहरता , उसी प्रकार यदि हमारे अंदर भी कमियां ही कमियां हों तो कोई भी अच्छाई ठहर ही नहीं सकती. इसलिए सबसे जरूरी है अपनी कमियों के छिद बंद करना अर्थात् अपने दोषों को दूर करना.

यह सरल नहीं है , किंतु दृढ़ इच्छा शक्ति वालों के लिए असंभव भी नहीं है. छल-कपट से दूर रहते हुए अपने व्यक्तित्व के छिद्रों को भरने के लिए यदि सतत सचेष्ट रहा जाए तो ईश्वर की समीपता का सच्चा सुख और अद्भुत मानसिक शांति मिलती है. इससे आचरण सुधरता है. कार्य और व्यवहार बेहतर हो जाते है और साथ ही साथ चिंतन भी निखर जाता है. मन का मैल भी धुल जाता है.

निर्मल मन हो, स्वस्थ तन हो तथा सद्गुरु का आशीर्वाद हो, तो ईश्वरीय कृपा की अनुभूति स्वयं होने लगती है. पग-पग पर उस दिव्य चेतना का अनुभव होने लगता है , जिसकी खोज हमारे ऋषि मुनि और मनीषी करते थे. ऊंचाइयों को पाने के लिए सन्यास लेने की जरुरत नहीं है. सद्गृहस्थ भी ऐसा कर सकते हैं. बस हम छल, कपट और व्यसनों से दूर रहें. आनंदस्वरूप परमात्मा हमें घर-परिवार और समाज में ही हर जगह मिल जाएगे. किसी न किसी रूप में वह खुद हमारे पास चले आएगे.

यह तीनों विचार हमारे कार्य में , व्यापार में ,एवं प्रतिदिन छोटे बड़े निर्णयों में बहुत सटीक बैठते हैं।

जय श्रीराम

साभार

अभिषेक तिवारी

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