एजुकेशन डेस्क. गरीबी की कोई जाति नहीं होती। कोई धर्म नहीं। वह सिर्फ एक अभिशाप है। बिहार के सुपौल जिले के एक गांव का दीपक, ब्राह्मण परिवार से था। पिता उदयानंद पाठक के पास आमदनी का कोई जरिया नहीं था। न जमीन, न नौकरी। इलाज की कमी से एक आंख की रोशनी भी जाती रही थी। घोर गरीबी के अंधेरे में दीपक को अपनी रोशनी खुद तलाशनी थी।
खाली पेट सोना आदत बन गई
असुविधाओं से भरा गांव का सरकारी स्कूल था। पढ़ाई के साथ दीपक को घर के काम भी करने होते थे। जैसे – रोज कुएं से पानी भरकर लाना। गुजारे के लिए कुछ बकरियां थीं, जिन्हें चराने का जिम्मा उसी का था। वह बकरियों को लेकर निकलता तो हाथ में किताबें लेकर। बकरियां चरतीं। वह पढ़ता। इस तरह पांचवी पास हो गया। नवोदय विद्यालय का नाम उसने शिक्षकों से सुना था। दाखिले की तैयारी तो की। मगर दाखिला नहीं मिला। नवोदय में दाखिला नहीं मिलने के कारण अब गांव से दूर एक और सरकारी स्कूल दीपक का आखिरी विकल्प था। पहुंचने में ही एक घंटा लगता। यहां भी वह पैदल ही जाता। एक पुरानी साईकिल भी पहुंच के बाहर थी। दीपक कहता है, हम घर में तीज-त्योहार के समय ही कभी चावल का स्वाद ले पाते थे। रातों को खाली पेट सोना जैसे आदत बन गई थी।
इंडियन ऑइल में इंजीनियर है दीपक
वह दसवीं पास हो गया। पढ़ता गया। बारहवीं में 64 फीसदी अंक ले आया। अब उसने सुपर 30 के दरवाजे पर कदम रखे। दीपक गांव से हिंदी में पढ़कर निकला था। ए,बी,सी,डी से अंग्रेजी सीखी। आज्ञाकारी, विनम्र और धुन के धनी दीपक की अटूट मेहनत सिर चकराने वाली थी। हर दिन 14-16 घंटे पढ़ाई। अपनी ब्रांच में हर समय टॉपर। 2008 में आईआईटी की चयन सूची में उसका नाम अच्छी रैंक के साथ चमका। खड़गपुर में दाखिला मिला, जहां वह नामी स्कूलों, महंगी कोचिंग और शानदार आर्थिक पृष्ठभूमि से आए जोश से भरे विद्यार्थियों के बीच था। उसने अपनी जगह बनाई। अच्छा प्रदर्शन किया। आखिरी साल चेयरमैन के हाथों एक मेडल मिला। वह कहता है, ‘गुरुजी, उस क्षण रोना आ गया। सुखद संयोग मुझे पटना ले आए थे वर्ना कहीं बकरियां ही चरा रहा होता।’ दीपक आज इंडियन ऑइल में इंजीनियर है।